बच्चे की परवरिश का समय हर माता पिता के लिए बहुत खास अनुभव होता है, लेकिन अगर आपके पास कोई अच्छा सपोर्ट सिस्टम न हो तो यह जिम्मेदारी आपके लिए चुनौतियों से भरी हो सकती है। एक अच्छा डे केयर नए माता-पिता को सहायता प्रदान करता है, लेकिन एक संयुक्त परिवार में बच्चे की जिस तरह से देखभाल जाती है, इससे उसकी तुलना नहीं की जा सकती है। लेकिन संयुक्त परिवार में भी बच्चों की परवरिश करने से जुड़ी अलग चुनौतियां हैं।
परवरिश का हर पहलू बच्चे की शारीरिक, भौतिक जरूरतों की देखभाल करने से लेकर उसके विकास के पड़ाव पर नजर रखने व उसे भावनात्मक रूप से पोषित करने और बौद्धिक रूप से बढ़ने में मदद करने तक, बेहद जरूरी है और इसमें आपका समय और ऊर्जा दोनों लगती है। समझदार परवरिश का मतलब एक मजबूत सपोर्ट सिस्टम बनाना होता है जहाँ पेरेंटिंग के कामों को परिवार के सदस्यों के बीच बांट दिया जाता है। लेकिन एकल परिवार में, जहाँ माँ कामकाजी होती है उनके लिए डे केयर या नैनी रखना जरूरी हो जाता है।
संयुक्त परिवारों में, दादा-दादी या परिवार के अन्य सदस्य बारी-बारी से बच्चे का पालन-पोषण और उनके विकास में मदद करते हैं। दोनों ही तरह के माहौल को ठीक से समझेंगे तो जानेंगे कि उनकी अपनी खूबियां और कमियां दोनों होती हैं। जिस तरह परिवारों में बच्चे की परवरिश के विभिन्न पहलुओं को देखा और संभाला जाता है, वह सफल व अच्छे इमोशनल कोशेंट वाली परवरिश और एक खराब परवरिश बीच का अंतर बता सकता है।
आम समस्याएं
1. खाना खिलाना
हमने देखा है कि ज्यादातर डे केयर सेंटर बच्चे के खानपान से जुड़ी सभी जरूरतों का भरपूर ध्यान रखते हैं। हालांकि, एक कामकाजी माँ जो संयुक्त परिवार में रहती है, उसे यह आश्वासन दिया जा सकता है कि उसके बच्चे को खाने के समय घर का बना खाना खिलाया जाएगा।
लेकिन अक्सर देखने में आता है कि बच्चे को खाना खिलाने को लेकर माता-पिता और दादा-दादी के बीच विवाद हो जाता है। उसकी वजह यह है कि परिवार के सदस्य खाना खाने के समय, खाने की चीजों के विकल्प और खाने की खुराक को लेकर एक दूसरे से असहमत हो सकते हैं जिससे घर में तनाव का माहौल पैदा हो सकता है। यह देखा गया है कि अपने माता-पिता की अनुपस्थिति में जब कोई बच्चा रोता है, दादा-दादी (जो अभी भी यह गलत विश्वास रखते हैं कि फैट स्वास्थ्यकारक होता है, उसे दे दें या बच्चे को किसी भी कीमत पर रोने नहीं देना है, चाहे उसे कुछ भी खाने के लिए देना पड़े) इस वजह से वो बच्चे को मिठाई या जंक फूड दे देते हैं। ऐसे में ज्यादातर माँ की बात को नजरअंदाज कर दिया जाता है घर में जिस सदस्य की चलती है उसकी ही बातों को ज्यादा महत्व दिया जाता है।
2. बच्चे पर केंद्रित होना
संयुक्त परिवारों में ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है कि बच्चा बहुत रो रहा हो और उसे नजरअंदाज कर दिया जाए। वहीं एकल परिवारों के बच्चों को मोबाइल जैसे गैजेट्स और टेलीविजन के जरिए ‘व्यस्त’ रखा जाता है। परिवार के वरिष्ठ सदस्य आमतौर पर बच्चों को टहलाने ले जाते हैं या उनके साथ खेलना पसंद करते हैं। संयुक्त परिवारों में आमतौर बच्चों के खेलने, बड़बड़ाने और शारीरिक गतिविधियों को काफी प्रोत्साहित किया जाता है, इससे माँ या अन्य सदस्यों को अपने दैनिक कामों को पूरा करने का मौका मिल पाता है। हालांकि, यह इस बात पर निर्भर करता है कि माता-पिता और उनके पूरे परिवार की बच्चे के साथ कितनी दोस्ती है या उनके साथ कितना घुले मिले हुए हैं।
3. पढ़ाना और सिखाना
बच्चों को पढ़ाना माता-पिता की प्राथमिक जिम्मेदारी है, जब परिवार के अन्य सदस्य इसमें शामिल होते हैं, तो माता-पिता के लिए यह काम आसान हो जाता है। परिवार के वरिष्ठ सदस्य बच्चे में अच्छे पारिवारिक मूल्यों की अहमियत पैदा कर सकते हैं, जैसे साथ बैठकर खाना आदि। यह एक बच्चे को परिवार के विभिन्न सदस्यों से विभिन्न गुण या कलाएं सीखने में मदद करता है। हालांकि, इन कुछ सालों में पढ़ाई के तरीके में काफी बदलाव हुआ है और ऐसे में परिवार के बड़े सदस्य नए पाठ्यक्रम और पढ़ाने की स्टाइल से अनजान हो सकते हैं जो बच्चे के लिए भ्रम पैदा कर सकते हैं। कभी-कभी वे बच्चे पर अपने वही पुराने तरीके थोपने की कोशिश करते हैं जिससे बच्चे को परेशानी होती है।
4. टिप्पणियां और आलोचना
यह सदियों से चला आ रहा है कि नए माता-पिता बनने वाले जोड़ों को अनुभवी लोगों द्वारा बहुत सारी सलाह, आलोचनाएं मिलती हैं, जो उनके अंदर गुस्सा पैदा करता है। हर माता-पिता यह आलोचना नहीं सह पाते हैं। यदि बच्चा अच्छा नहीं कर रहा है या पतला दिखाई देता है या बहुत रोता है, तो माँ को इस बात के लिए ताने झेलने पड़ते हैं। जिन बच्चों के खाने का कोई समय नहीं होता या वह सही से खाना नहीं खाते है तो यह चिंता का कारण बन जाता है और ससुराल वालों से लगातार मिलने वाला दबाव और आलोचना माँ के लिए और मुसीबत बढ़ा सकती हैं। सही सलाह के अभाव में, उस समय माता-पिता के लिए अलग होना ही बेहतर होगा ताकि वो अपने बच्चे की पूरी जिम्मेदारी लें और अपनी व घर की शांति बनाए रखें।
5. निर्णय लेना
बच्चे के लिए किसी भी तरह के फैसले लेने का हक हमेशा माता-पिता को होता है लेकिन संयुक्त परिवारों में ऐसा नहीं है। यहाँ ज्यादातर फैसले बच्चे के दादा-दादी ही लेते हैं और अक्सर अपने विचार माता-पिता पर थोपते हैं। रोजाना बच्चे की हर चीज को लेकर कोई दूसरा बताए यह पेरेंट्स के लिए काफी मुश्किल होता है। जैसे बच्चे के लिए डायपर बनाम घर में बनी लंगोट पहनाने से लेकर बच्चे की पढ़ाई और स्कूल जैसे बड़े फैसले लेने तक, हर बात में घर के बड़ों का दखल होता है। युवा माता-पिता के लिए, विशेष रूप से माँ के लिए अपने निर्णय पर ठीके रहना बहुत तनावपूर्ण हो जाता है, ऐसे में उसे अपने जीवनसाथी के पूरे समर्थन की जरूरत होती है।
आखिर में हम इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि, ज्यादातर कामकाजी जोड़े अपने बच्चे को परिवार के सदस्यों के साथ छोड़ना पसंद करते हैं, बजाय एक साफ-सुथरे पर महंगे डे केयर में रखने के। संयुक्त परिवार में ऐसे जोड़ों को काफी साथ और आराम मिल जाता है जो थक कर घर आते हैं, खासकर माँ।
बच्चे भी इससे बेहद खुश रहते हैं, क्योंकि वह घर में रहने का आनंद उठाते हैं और उनके माता-पिता भी रिलैक्स होकर अपना काम कर पाते हैं। संयुक्त परिवार का मतलब तो यही होना चाहिए कि नए माता-पिता के लिए काम कम है लेकिन इसके साथ उन्हें, खासकर माँ को घरवालों से पर्याप्त आलोचना, एक तरफा निर्णय लेने और खिलने-पिलाने व बच्चे के पालन-पोषण के कामों से संबंधित कोई भी कमी होने पर परिवार में काफी संघर्ष करना पड़ता है और यह माँ के लिए तनाव पैदा करता है, जो बच्चे पर बुरा प्रभाव डाल सकता है।
संयुक्त परिवार में बच्चे की परवरिश करते हुए भावनात्मक भार बढ़ जाता है। सिर्फ एक बड़ा सपोर्ट सिस्टम ही जरूरी नहीं है, बल्कि सही मार्गदर्शक का होना भी जरूरी है जो माँ को भी समझ सके और उसे गाइड कर सके।