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जब एक आदर्श शिष्य की बात होती है तो सबसे पहला नाम आता है एकलव्य का। अपने गुरु के सम्मान के लिए एकलव्य ने उन्हें वह गुरु दक्षिणा दी जो उसके जीवन की सबसे अमूल्य वस्तु थी। ज्यादातर लोग सिर्फ इतना जानते हैं कि एकलव्य ने द्रोणाचार्य को अपना अंगूठा दान कर दिया था लेकिन इसके पीछे क्या कारण था और द्रोणाचार्य जैसे महान गुरु ने अपने शिष्य के साथ इतना कठोर व्यवहार क्यों किया इसकी पूरी कहानी पढ़ने हमने यहाँ दी है।
महाभारत की इस कथा के तीन मुख्य पात्र हैं –
महाभारत के समय में हस्तिनापुर के जंगलों में निषादों के प्रमुख हिरण्यधनु का पुत्र एकलव्य रहता था। एकलव्य को धनुर्विद्या यानी तीरंदाजी में गहरी रुचि थी और वह हमेशा सैन्य कला के विशेषज्ञ माने जाने वाले गुरु द्रोणाचार्य से तीरंदाजी सीखना चाहता था। एक दिन, वह द्रोणाचार्य से धनुर्विद्या के गुर सीखने के लिए उनके गुरुकुल के लिए रवाना हुआ।
जब एकलव्य वहां पहुंचा तो उसने देखा कि द्रोणाचार्य अपने शिष्यों को धनुर्विद्या की शिक्षा दे रहे हैं। अपने आदर्श को अपनी आँखों के सामने देखकर वह उत्साह से भर उठा और तुरंत जाकर उनके चरणों में झुक गया।
यह देखकर द्रोणाचार्य और वहां खड़े उनके सभी शिष्य बहुत आश्चर्यचकित हुए। द्रोणाचार्य ने एकलव्य से पूछ –
“तुम कौन हो वत्स? मुझे नहीं लगता कि हम पहले कभी मिले हैं और तुम मेरे पैर क्यों छू रहे हो?”
एकलव्य ने उत्तर दिया –
“गुरूजी, मैं निषाद प्रमुख का पुत्र एकलव्य हूं। मैंने हमेशा आपको अपना आदर्श माना है और आपसे धनुर्विद्या सीखना मेरा स्वप्न है। कृपया मुझे अपने गुरुकुल में शरण लेने की अनुमति दें।”
यह सुनकर द्रोणाचार्य कुछ देर चुप रहे और फिर उन्होंने कहा –
“मैं हस्तिनापुर के राजकुमारों का गुरु हूँ। मैं केवल उन्हें ही धनुर्विद्या और युद्ध कला की शिक्षा देने के लिए बाध्य हूँ। इसलिए मैं तुम्हें अपने गुरुकुल में स्थान नहीं दे सकता।”
द्रोणाचार्य की बात से एकलव्य बहुत दु:खी हुआ और वहां से वापस जंगल चला आया। हालाँकि, इस घटना के बाद द्रोणाचार्य से धनुर्विद्या सीखने का उसका संकल्प और भी दृढ़ हो गया। अगले दिन, उसने जंगल में एकांत ढूंढा। वहां एकलव्य ने मिट्टी से गुरु द्रोणाचार्य की एक मूर्ति बनाई और उसे एक स्थान पर रख दिया।
अब प्रतिदिन, एकलव्य मिट्टी से बनी द्रोणाचार्य की मूर्ति को अपना गुरु मानकर उनसे आशीर्वाद लेता और उसके सामने ही तीरंदाजी का अभ्यास करता। इस प्रकार कई वर्ष बीत गए और एकलव्य ने धनुर्विद्या में महारत हासिल कर ली।
एक दिन, अभ्यास करते समय, एकलव्य को निकट ही एक कुत्ते के भौंकने की आवाज दुनाई दी। कुत्ते के लगातार भौंकने से एकलव्य का ध्यान भटक रहा था। फिर क्या था, उसने कुत्ते के आवाज की दिशा ओर तीर चलाए। वे तीर जाकर इस तरह कुत्ते के मुँह में लगे कि उसका भौंकना बंद हो गया, हालांकि, कोई भी तीर उसके शरीर पर कहीं नहीं लगा।
कुत्ता उसी अवस्था में इधर-उधर घूमने लगा और घूमते घूमते गुरु द्रोणाचार्य के गुरुकुल में पहुंचा। द्रोणाचार्य और उनके शिष्य कुत्ते को देखकर आश्चर्यचकित रह गए।
द्रोणाचार्य ने कहा –
“यह केवल वही व्यक्ति कर सकता है जिसने धनुर्विद्या में महारत हासिल कर ली हो।”
इतना कहकर गुरु द्रोण और उनके शिष्य उस कुशल धनुर्धर की खोज में निकल पड़े। कुछ दूरी पर जंगल में वह उसी स्थान पर पहुंच गए जहाँ एकलव्य धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था।
उसे देखकर द्रोणाचार्य ने कहा –
“मैं देख रहा हूं कि तुम एक उत्कृष्ट तीरंदाज हो वत्स। तुम्हारा गुरु कौन है?”
अपने गुरु को एक बार फिर साक्षात सामने देखकर एकलव्य ने उनके पैर छुए और कहा –
“आप ही मेरे गुरु हैं।’
उसकी बात सुनकर द्रोणाचार्य ने भ्रमित होकर बोले –
“ किंतु मुझे याद नहीं कि मैंने तुम्हें इसकी शिक्षा दी है।”
“गुरुजी, मैं एकलव्य हूं। मैं एक बार आपके गुरुकुल आया था, लेकिन आपने कहा कि आप मुझे शिक्षा नहीं दे सकते। तब से मैं आपकी प्रतिमा के सामने धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा हूं।”
यह सुनकर द्रोणाचार्य स्तब्ध रह गए। एकलव्य के कौशल पर वे अभिभूत तो हुए पर समझ गए कि उसकी यह उत्कृष्टता उन्हें एक राजगुरु के रूप में एक कठिन परिस्थिति में डालने वाली है। क्योंकि सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में एकलव्य अर्जुन से कहीं आगे था। उनके मार्गदर्शन में एक सामान्य व्यक्ति का पुत्र एक राजकुमार से आगे नहीं बढ़ सकता था। द्रोणाचार्य की दुविधा ने उन्हें एक कठोर निर्णय लेने के लिए विवश कर दिया। उन्होंने एकलव्य से कहा –
“यदि तुमने मुझसे शिक्षा ली है और इतनी कुशलता हासिल कर ली है तो अब तुम्हें मुझे गुरु दक्षिणा देनी होगी।”
एकलव्य की खुशी का ठिकाना न रहा। उसने तुरंत द्रोणाचार्य से उनकी गुरु दक्षिणा पूछी। तब द्रोण ने कहा –
“मुझे गुरु दक्षिण में तुम्हारा दाहिना अंगूठा चाहिए।”
द्रोणाचार्य जानते थे कि इससे वह भविष्य में धनुर्विद्या में असमर्थ हो जाएगा। एकलव्य ने बिना विचार किए कृपाण निकाली और अपना दाहिना अंगूठा काट लिया और अपने गुरु को अर्पित कर दिया।
“हे आचार्य, इतने समय तक मुझे शिक्षा देने के लिए धन्यवाद। कृपया मेरी गुरु दक्षिणा स्वीकार करें।”
एकलव्य की गुरुदक्षिणा देखकर वहां उपस्थित द्रोणाचार्य का प्रत्येक शिष्य स्तब्ध रह गया। गुरु द्रोण ने एकलव्य से कहा –
“मुझे तुम पर गर्व है। तुम्हारे अंगूठे के बिना भी मैं तुम्हें सबसे महान धनुर्धर होने का आशीर्वाद देता हूं। साथ ही तुम सदैव गुरु के प्रति समर्पण के आदर्श रहोगे।”
महाभारत की इस घटना ने एक आदर्श शिष्य के रूप में एकलव्य का नाम हमेशा के लिए अमर कर दिया।
महाभारत की कहानी: एकलव्य की कथा से यह सीख मिलती है कि बच्चों को अपने शिक्षकों के प्रति विनम्र और सम्मानजनक होना चाहिए। हम अपने शिक्षकों को उनके द्वारा दिए गए अमूल्य ज्ञान का ऋण कभी नहीं चुका पाएंगे, लेकिन हमें हमेशा उनका सम्मान करना चाहिए। कहानी में, एकलव्य ने तुरंत अपना दाहिना अंगूठा गुरु द्रोणाचार्य को दान कर दिया क्योंकि वह जानता था कि जो ज्ञान उन्होंने उसे दिया था वह अमूल्य था और उसकी बराबरी नहीं हो सकती थी।
महाभारत की कहानी: एकलव्य की कथा कहानी महाभारत की एक महत्वपूर्ण कहानी है। यह नैतिक कहानियों में आती है क्योंकि इसमें जीवन के आदर्श मूल्यों का वर्णन है।
एकलव्य निषादराज का पुत्र था।
द्रोणाचार्य हस्तिनापुर के राजकुमारों यानी पांडवों और कौरवों के गुरु थे।
एकलव्य ने द्रोणाचार्य को अपना दाहिना अंगूठा दान किया था।
प्राचीन काल में गुरु अपने गुरुकुल में ही छात्रों को रखकर वर्षों तक शिक्षा देते थे लेकिन उसके बदले में उनसे कुछ नहीं मांगते थे। शिक्षा पूरी होने के बाद छात्र अपने गुरु को उनकी जो भी इच्छा हो वह गुरु दक्षिणा के रूप में लाकर देते थे।
महाभारत एक ऐसा महाकाव्य है, जिसकी हर कथा कोई न कोई शिक्षा देती है। महाभारत का प्रत्येक प्रसंग मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का चित्रण है। एकलव्य के जीवन की यह कहानी बच्चों को अपने शिक्षकों का सम्मान करना सिखाती है। यह कहानी एक पवित्र गुरु-शिष्य समीकरण और इस संबंध की पवित्रता बताने वाली कहानी है।
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