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माँ के गर्भ में एक बच्चा 37 सप्ताह में पूरी तरह से विकसित होता है। प्रीमैच्योर बच्चे वे होते हैं जिनका जन्म गर्भावस्था के 37 सप्ताह पूरे होने से पहले ही हो जाता है। गर्भ में पल रहे बच्चे में कई मुख्य अंग 34 से 37 सप्ताह के बीच में विकसित होते हैं। इस तरह बच्चे के समय से पहले जन्म लेने की वजह से उसका ऑर्गन सिस्टम पूरी तरह से विकसित नहीं होता है जिससे उसे डेवलपमेंटल व स्वास्थ्य से संबंधित समस्याएं होती हैं। प्रीमैच्योर या प्रीटर्म जन्म के कारण उसे आगे के जीवन में भी कई समस्याएं हो सकती हैं। इस आर्टिकल में प्रीमैच्योर बच्चों की सेहत को होने वाली सबसे आम समस्याओं के बारे में चर्चा की गई है, जानने के लिए आगे पढ़ें।
भ्रूण के कई जरूरी अंग, जैसे लंग्स, किडनी, दिमाग, स्पाइनल कॉर्ड और रिप्रोडक्टिव ऑर्गन तीसरी तिमाही में पूरी तरह से विकसित होते हैं। यह समय गर्भावस्था के 27वें सप्ताह से डिलीवरी तक रहता है। चूंकि प्रीमैच्योर बच्चा विकास पूरा होने से पहले ही पैदा हो जाता है इसलिए उसे स्वास्थ्य से संबंधित कई समस्याएं हो सकती हैं। बच्चा जितना पहले पैदा होगा उसे विकास से संबंधित समस्याएं उतनी ही ज्यादा होंगी। एक प्रीमैच्योर बच्चे को स्वास्थ्य से संबंधित कौन सी समस्याएं हो सकती हैं, आइए जानें;
प्रीमैच्योर बच्चों में सबसे आम समस्या लंग्स का विकास न होने से होती है। इसमें कुछ लक्षण शामिल हैं, जैसे सांस कम आना, नाक से आवाज आना, नाक फैलना।
यह क्या है?: रेस्पिरेटरी डिस्ट्रेस सिंड्रोम (आरडीएस)) एक ऐसी समस्या है जिसमें प्रीमैच्योर बच्चों को सांस लेने में कठिनाई इसलिए होती है क्योंकि उनके लंग्स में पर्याप्त रूप से इलास्टिसिटी नहीं होती है।
इसका इलाज कैसे होता है?: आरडीएस को एक्स्ट्रा ऑक्सीजन देकर, वेंटिलेटर और लगातार एयरवे प्रेशर डिवाइस से और सरफेक्टेंट रिप्लेसमेंट से ठीक किया जा सकता है। सरफेक्टेंट एक लिक्विड है जो लंग्स के ऊपरी भाग में होता है और इससे सांस लेने की दिक्कत ठीक हो जाती है। प्रीमैच्योर बच्चे के लंग्स पूरी तरह से विकसित नहीं होते हैं इसलिए उनके लंग्स में पर्याप्त सरफेक्टेंट नहीं पाया जाता है जिसकी वजह से उन्हें सांस लेने में दिक्क्त होती है। यह लिक्विड लंग्स को खुला रखने में मदद करता है ताकि बच्चा हवा में सांस ले सके।
पेटेंट डक्ट्स आर्टेरीओसस (पीडीए) दिल की समस्या है जो अक्सर प्रीमैच्योर बच्चों को होती है।
यह क्या है?: गर्भ में बच्चे को प्लेसेंटा से ऑक्सीजन मिलती रहती है। इसलिए उनमें बड़ी आर्टरी होती है जिसे डक्ट्स आर्टेरीओसस कहते हैं और यह बच्चे के लंग्स में खून पहुँचाता है। जन्म के बाद यह आर्टरी बंद हो जाती है ताकि खून का बहाव लंग्स में जाकर ऑक्सीजन ले सके। प्रीमैच्योर बच्चों में डक्ट्स खुला रह जाता है जिसकी वजह से दिल में ऑक्सीजन-युक्त खून नहीं पहुंचता है और इससे हार्ट फेल हो सकता है।
इसका इलाज कैसे होता है?: पीडीए दवा और कैथेटर-बेस्ड प्रोसीजर से ठीक होता है जो आर्टरी को बंद करने में मदद करता है। हालांकि यदि दवा काम नहीं करती है तो आर्टरी को सर्जरी से बंद किया जाता है। छोटा पीडीए अक्सर बिना किसी ट्रीटमेंट के बंद हो जाता है।
प्रीमैच्योर बच्चों में जॉन्डिस होना सबसे आम है।
यह क्या है?: जॉन्डिस में त्वचा का रंग पीला हो जाता है, आंखें सफेद हो जाती हैं और शरीर में म्यूकस का मेम्ब्रेन बनने लगता है जिसकी वजह से खून में बिलीरुबिन बढ़ जाता है। बिलीरुबिन एक वेस्ट प्रोडक्ट है जो रेड ब्लड सील्स के नष्ट होने से अपने आप बनता है। प्रीमैच्योर बच्चे का लिवर पूरी तरह से विकसित नहीं होता है जिसकी वजह से शरीर से टॉक्सिन बाहर नहीं निकल पाता है। जॉन्डिस का पता लगाने के लिए आंख और त्वचा में पीलेपन की जांच की जाती है।
इसका इलाज कैसे होता है?: प्रीमैच्योर बच्चों में जॉन्डिस की समस्या को ठीक करने के लिए लाइट थेरेपी का उपयोग किया जाता है जिसमें विशेष प्रकार की लाइट शरीर से ज्यादा बिलीरुबिन कम करने में मदद करती है। गंभीर मामलों में बच्चे को खून चढ़ाने की जरूरत हो सकती है।
ब्रोंकोपल्मोनरी डिसप्लेसिया (बीपीडी) लंग्स का एक क्रोनिक रोग है जो प्रीमैच्योर बच्चे को प्रभावित करता है।
यह क्या है?: भ्रूण में सबसे अंत में लंग्स का विकास होता है और प्रीमैच्योर बच्चों में अविकसित लंग्स होने के कारण उन्हें रेस्पिरेटरी से संबंधित कई समस्याएं होती हैं। यदि बच्चे को बीपीडी हुआ है तो उसके लंग्स डैमेज हो सकते हैं, लंग्स के टिश्यू में निशान पड़ सकते हैं और लंग्स में फ्लूइड भी भर सकता है। जिन प्रीमैच्योर बच्चों में रेस्पिरेटरी डिस्ट्रेस सिंड्रोम है और उनका एपरेटस और ऑक्सीजन से इलाज लंबे समय तक चलता है, उनमें बीपीडी की समस्या होने का जोखिम बहुत ज्यादा है। इसमें भरी हुई नाक और तेज सांस लेने जैसे लक्षण शामिल हैं।
इसका इलाज कैसे होता है?: यदि बच्चे को बीपीडी है तो इसे ठीक करने के लिए डॉक्टर दवा देने के साथ-साथ ऑक्सीजन भी देते हैं ताकि बच्चे को आसानी से सांस लेने में मदद मिल सके और धीरे-धीरे वेंटिलेटर की निर्भरता को कम करते हैं।
यह समस्या बच्चे के दिमाग में अविकसित ब्लड वेसल फटने से होती है जो एक चिंता की बात है क्योंकि ज्यादा ब्लीडिंग होने से दिमाग के सेल्स हमेशा के लिए डैमेज हो सकते हैं। इसके अलावा ज्यादा ब्लीडिंग होने से दिमाग में स्पाइनल फ्लूइड बढ़ सकता है। इसके कुछ लक्षण हैं, जैसे सिजर्स, एनीमिया और बच्चे का चेहरा पीला दिखना।
यह क्या है?: यह समस्या होने से दिमाग में खून के बीच में स्पेस रहता है। इसमें ज्यादा ब्लड दिमाग से निकलने वाले फ्लूइड को करता है जिसके परिणामस्वरूप दिमाग के चारों तरफ फ्लूइड जमा हो जाता है और यह ऑर्गन्स में गंभीर रूप से दबाव डालता है।
इसका इलाज कैसे होता है?: दिमाग में ब्लीडिंग होने का पता एमआरआई या अल्ट्रासाउंड से लगाया जाता है। इसके प्रेशर को कम करने के लिए सर्जरी की मदद से दिमाग में शंट इन्सर्ट की जाती है। कई मामलों में ब्लीडिंग बिना किसी ट्रीटमेंट के अपने आप बंद हो जाती है।
प्रीमैच्योर बच्चे का इम्यून सिस्टम कमजोर और अविकसित होता है जो जर्म्स की वजह से होने वाले रोगों को खत्म करने में सक्षम नहीं होता है।
यह क्या है?: इंफेक्शन बैक्टीरिया, वायरस और अन्य माइक्रोब्स से होता है, जैसे प्रीमैच्योर बच्चों में होने वाले इंफेक्शन में निमोनिया, सेप्सिस, मेनिन्जाइटिस आदि शामिल हैं।
इसका इलाज कैसे होता है?: इंफेक्शन को एंटीवायरल और एंटीबायोटिक दवा से ठीक किया जा सकता है।
नेक्रोटाइजिंग एंट्रोकोलाइटिस प्राकृतिक रूप से इंटेस्टाइनल बैक्टीरिया है जो बॉवल की दीवार को इन्फेक्ट करके डैमेज कर देता है।
यह क्या है?: नेक्रोटाइजिंग एंट्रोकोलाइटिस (एनीईसी) एक ऐसी समस्या है जिसमें आंत का एक भाग प्रीमैच्योर बच्चे में खून की आपूर्ति को कम कर देता है और इससे बच्चे की मृत्यु हो सकती है। इस समस्या के कुछ लक्षण हैं, जैसे दूध कम पीना, पॉटी में खून आना, उल्टी होना। इसमें कुछ अन्य लक्षण भी शामिल हैं, जैसे उल्टी, पॉटी में खून और पेट में सूजन होना।
इसका इलाज कैसे होता है?: यदि बच्चे को एनईसी की समस्या हुई है तो उसे एंटीबायोटिक्स दी जाती हैं और इंट्रावेनस से दूध पिलाया जाता है ताकि पेट ठीक हो सके। कुछ मामलों में इंटेस्टाइन के क्षतिग्रस्त भाग को सर्जरी से निकालने की सलाह दी जाती है।
यदि बच्चा 30 सप्ताह से पहले पैदा हुआ है तो यह समस्या हो सकती है।
यह क्या है?: शरीर में ब्लड वेसल के एब्नॉर्मल विकास और ऑक्सीजन के अनियंत्रित स्तर की वजह से आंख का रेटिना डैमेज हो जाता है जिसे रेटिनोपैथी ऑफ प्रीमैच्योरिटी (आरओपी) कहते हैं। इसका पता लगाने के लिए बच्चे में संकेतों पर ध्यान देना जरूरी है। इसमें बच्चे को न दिखना, प्यूपिल डायलेशन शामिल है।
इसका इलाज कैसे होता है?: ऑफ्थैमोलॉजिस्ट द्वारा लेजर थेरेपी या क्रोथैरेपी की मदद से आरओपी को ठीक किया जाता है। माइल्ड समस्याएं अपने आप ठीक हो जाती हैं और बच्चे को दिखाई भी देता है। गंभीर मामलों में दृष्टि बचाने के लिए सर्जरी की जाती है।
एपनिया एक ऐसी समस्या है जिसमें प्रीमैच्योर बच्चा 15 सेकण्ड्स तक सांस लेना बंद कर देता है। इससे बच्चे का हार्ट रेट धीमा हो जाता है जिसे ब्रैडीकार्डिया कहा जाता है।
यह क्या है?: प्रीमैच्योर बच्चों का नर्वस सिस्टम अविकसित होता है जिसकी वजह से उनका दिमाग रेस्पिरेटरी सिस्टम से संचार करना बंद कर देता है। जिसके परिणामस्वरूप शरीर में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है और दिल की धड़कनें भी धीमी हो जाती हैं। स्टडीज के अनुसार इसके परिणामस्वरूप दिमाग का फंक्शन धीमा हो जाता है। यद्यपि यह कहना कठिन है कि यह समस्या हमेशा के लिए रहती है या नहीं। इसके लक्षण हैं सांस न आना और बच्चा नीला पड़ना।
इसका इलाज कैसे होता है?: प्रीमैच्योर बच्चों में लगातार एपनिया की जांच होती है। यदि बच्चा सांस लेना बंद कर देता है तो नर्स बच्चे की मालिश करती है और उसका शरीर थपथपाती है या उसके पैरों के तलुओं को रगड़ती है। डॉक्टर सीपैप मशीन या बच्चे को मैकेनिकल रूप से वेन्टीलेट करने के लिए कम्प्रेशन बैग का उपयोग करते हैं।
यह समस्या तब होती है जब बच्चे में खून की कमी हो।
यह क्या है?: प्लेसेंटा की मदद से बच्चे को गर्भ में भी आयरन मिलता है। हालांकि प्रीमैच्योर बच्चे यह प्रोसेस पूरा होने से पहले ही पैदा हो जाते हैं। जिसकी परिणामस्वरूप शरीर में रेड ब्लड सेल्स की कमी होती है। गंभीर रूप से एनीमिया होने से बच्चे का विकास रुक जाता है। इसमें कुछ लक्षण शामिल हैं, जैसे वजन कम होना, एपनिया, कमजोरी और त्वचा पीली होना।
इसका इलाज कैसे होता है?: यदि प्रीमैच्योर बच्चे को एनीमिया है तो रेड ब्लड वेसेल्स (आरबीसी) में सुधार के लिए दवा, आयरन सप्लीमेंट्स और ब्लड ट्रांसफ्यूजन का इस्तेमाल किया जा सकता है।
प्रीमैच्योर बच्चा जितना समय से पहले जन्म लेता है उसमें स्वास्थ्य से संबंधित समस्याएं उतनी ही ज्यादा होती हैं। ये समस्याएं जीवनभर उसके बड़े होने तक भी रहती हैं। प्रीमैच्योर बच्चों में कुछ आम समस्याएं जो जीवनभर रहती हैं, वे इस प्रकार हैं;
रिसर्च के अनुसार प्रीमैच्योर बच्चों में अटेंशन डेफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर होने की संभावनाएं अधिक होती हैं जिसकी वजह से उसमें व्यावहारिक और मानसिक समस्याएं हो सकती हैं, जैसे एंग्जायटी।
कई स्टडीज के अनुसार प्रीमैच्योर बच्चों में क्रोनिक हेल्थ समस्याएं और इम्यून सिस्टम अविकसित होता है जिसकी वजह से बड़े होने के बाद भी उन्हें अक्सर बीमारियां होती रहती हैं।
प्रीमैच्योर बच्चों में दांत के इनेमल पूरी तरह से विकसित नहीं होते हैं जिसकी वजह से उनके दांत सुरक्षित नहीं रहते हैं। इससे बड़े होने के बाद भी उनके दांतों में जल्दी जर्म्स, कैविटी हो जाती है और दांत पीले होने लगते हैं।
फुल टर्म बच्चों की तुलना में प्रीमैच्योर बच्चों को सोशल लाइफ और स्कूल में ज्यादा दिक्कत होती हैं। उन्हें पढ़ाई में भी कठिनाई होती है, जैसे कम्युनिकेट करने में देरी होना, याद कर में कठिनाई और लोगों के साथ रहना।
प्रीमैच्योर बच्चों में एक समस्या यह भी होती है कि उन्हें बाद में सुनाई कम देने लगता है। यह अक्सर कान के भीतरी हिस्से का पूरा विकास न होने, इंफेक्शन की वजह से होता है जिसके परिणामस्वरूप बड़े होने के बाद कम सुनाई देता है और यह जन्म के दौरान वजन कम होने की वजह से भी हो सकता है।
प्रीमैच्योर बच्चों से संबंधित कई स्टडीज में यह बताया गया है कि प्रीमैच्योर बच्चों में न्यूरोलॉजिकल डिसऑर्डर होने का खतरा बहुत ज्यादा रहता है, जैसे ऑटिज्म और सेरेब्रल पाल्सी।
मांसपेशियां कमजोर होना भी एक लंबे समय तक रहने वाली समस्या है। गर्भावस्था की तीसरी तिमाही में अक्सर मसल्स डेवलप होती हैं। प्रीमैच्योर बच्चों के मसल्स पूरी तरह से विकसित नहीं हो पाते हैं। रिसर्च के अनुसार जो शिशु प्रीटर्म पैदा हुए हैं उनके मसल्स फुल टर्म जन्मे शिशुओं की तुलना में कमजोर रहते हैं।
प्रीमैच्योर बच्चों को संभालना थोड़ा कठिन है। उन्हें जन्म लेने के दिन से ही समस्याएं शुरू हो जाती हैं और इसकी वजह से उन्हें बड़े होने तक कई परेशानियां हो सकती हैं। हालांकि मेडिकल साइंस प्रगति के साथ प्रीमैच्योर बच्चों की कई समस्याओं को अच्छी तरह ठीक किया जा सकता है। कई प्रीमैच्योर बच्चों का गंभीर समस्याओं में भी बचाव हुआ है और वे बड़े होने तक भी हेल्दी हैं। समय से पहले जन्म लेने वाले हजारों बच्चे हैं जो गंभीर हेल्थ प्रॉब्लम्स से जूझकर ठीक हुए हैं और वयस्कों के रूप में स्वस्थ जीवन जी रहे हैं।
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