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किसका बलिदान बड़ा, यह कहानी बेताल की पच्चीसी कहानियों में तीसरी कहानी है। कहानी एक लोकप्रिय राजा रूपसेन और उनके अंगरक्षक वीरवर की है। इस कहानी में बताया गया है कि कैसे एक सच्चे सेवक वीरवर ने अपने कर्तव्य के लिए और अपनी जान की परवाह न करते हुए अपने बेटे सहित देवी के सामने पूरे परिवार की बलि दे दी। लेकिन राजा को जब इसकी खबर हुई तो उन्हें बहुत अफसोस हुआ और उन्होंने देवी से यह कामना की कि वह वीरवर के परिवार को पुनर्जीवित कर दें। देवी ने राजा की सुन ली और आखिर में बेताल ने विक्रम से पूछा इन सब में सबसे बड़ा बलिदान किसने दिया।
पिछली कहानी के अंत में पेड़ पर जा लटके बेताल को राजा विक्रमादित्य बड़ी मेहनत से नीचे उतारते हैं और अपनी पीठ पर लादकर योगी के पास ले जाने के लिए चलने लगते हैं। तब एक बार फिर बेताल विक्रम को कहानी सुनाना शुरू करता है। ये कहानी राजा रूपसेन और अंगरक्षक वीरवर की है।
एक समय की बात है वर्धमान राज्य में रूपसेन नामक एक राजा था। राजा उसके साहस, दयालुता और न्याय की वजह से जाना जाता था। यही कारण है कि सिर्फ उसके राज्य वर्धमान में ही नहीं बल्कि आस-पास सभी राज्यों में उनके व्यक्तित्व की मिसाल दी जाती थी। एक दिन राजा के दरबार में वीरवर नाम का एक व्यक्ति आया। राजा ने उससे उसके आने की वजह पूछी तो वीरवर बोला
“मुझे काम चाहिए और मैं अंगरक्षक के रूप में आपकी सेवा करना चाहता हूं।”
वीरवर की बातों को सुनकर राजा ने कहा – “मैं तुम्हें अपना अंगरक्षक बना सकता हूं, लेकिन उसके लिए तुम्हें अपनी कुशलता साबित करनी होगी। ताकि मुझे तय करने में आसानी हो कि तुम मेरे अंगरक्षक बनने के लायक हो या नहीं।”
राजा की बात सुनने के बाद वीरवर परीक्षा के लिए तैयार हो जाता है। उसने अपनी बहादुरी से अपना शस्त्र कौशल दिखाया। वीरवर की सभी योग्यताओं को देखकर राजा बेहद प्रसन्न हुआ। राजा ने उससे पूछा –
“वीरवर यदि मैं तुम्हें अपना अंगरक्षक बनाता हूं, तो तुम्हें हर दिन खर्च के लिए क्या चाहिए?”
वीरवर ने राजा को जवाब देते हुए कहा – “महाराज आप मुझे हजार तोला सोना दे दीजिएगा।”
वीरवर की बातों सुनकर दरबार में मौजूद लोग आश्चर्यचकित हो गए। राजा रूपसेन भी वीरवर की मांग से हैरान हो गए। ऐसा इसलिए क्योंकि वीरवर की मांग भी इतनी बड़ी है। राजा ने गंभीरता से वीरवर से पूछा –
“तुम्हारे घर में कितने लोग हैं?”
वीरवर ने जवाब दिया – “महाराज कुल चार लोग हैं, मैं, मेरी पत्नी, मेरा बेटा और मेरी बेटी।”
वीरवर के जवाब सुनने के बाद राजा के मन में विचार आया कि आखिर चार लोगों के खर्चे के लिए इतने पैसे की क्या जरूरत है। उसके बाद राजा ने वीरवर की हजार तोला सोने के मांग मान ली। वीरवर का सिर्फ इतना काम था कि उसे हर रात राजा के कक्ष के बाहर पहरा देना था। लेकिन राजा के मन में इस बात को जानने की इच्छा थी कि आखिर वीरवर को इतना धन क्यों चाहिए। उन्होंने वीरवर को हजार तोला सोना देकर रात में नौकरी पर आने का आदेश दिया और साथ ही अपने कुछ सैनिकों को वीरवर के पीछे जाने का आदेश दिया। वीरवर नौकरी पाने के बाद और मनचाहा वेतन पाने के बाद बेहद खुश था।
वीरवर हजार तोला सोना लेकर अपने घर पहुंचा। वहां उसने आधा सोना ब्राह्मणों को बांट दिया। बाकी बचे हुए सोने के दो हिस्से कर दिए। एक हिस्से को उसने वैरागियों, सन्यासियों और मेहमानों को दे दिया। फिर बचे हुए सोने से अनाज मंगवाया और बेहतरीन पकवान भी बनवाया। बने हुए पकवान को वीरवर ने गरीबों में बंटवाया और उसके बाद बचा हुआ खाना घरवालों ने मिल बांट कर खाया।
राजा के सैनिकों ने वीरवर की ये सभी चीजें अपनी आंखों से देखी। जब उन्होंने राजा को बताया जो उन्हें बहुत संतुष्टि हुई कि उनके द्वारा दिया गया धन बर्बाद नहीं हो रहा बल्कि अच्छे कामों के लिए इस्तेमाल हो रहा है। राजा की नजरों में वीरवर खरा उतरा है। वीरवर जब अगले दिन महल राजा की रक्षा के लिए पहुंचा, तो राजा सोया नहीं है। राजा रात में ये देखने के लिए जगा रहा ताकि वह देख सके कि वीरवर अपना काम अच्छे से कर रहा है कि नहीं। राजा ने देखा कि वीरवर अपनी पलकों को झपकाए बिना पूरी रात ईमानदारी से पहरा दे रहा था। वीरवर की ऐसी ईमानदारी देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ।
वीरवर हर दिन ऐसे ही शाम को महल पहुंच जाता और राजा की पूरी ईमानदारी से रातभर रक्षा करता। राजा को किसी भी चीज की जरूरत हो तो वीरवर हमेशा वहां मौजूद होता है। ऐसे ही करते करते कई महीने बीत जाते हैं। लेकिन एक रात कुछ अजीब घटना घटी। राजा को रात में किसी महिला की रोने की आवाज सुनाई दी। महिला के रोने की आवाज सुनकर राजा को आश्चर्य हुआ। राजा ने वीरवर को बुलाया और पूछा –
“जाओ देखो महिला के रोने की आवाज कहां से आ रही है और कौन रो रहा है और उसका कारण क्या है।”
राजा के आदेश के बाद वीरवर तुरंत उस स्त्री के रोने का जानने के लिए निकल पड़ा।
वीरवर को थोड़ी आगे जाने के बाद एक स्त्री दिखाई देती है। उस स्त्री ने सिर से लेकर पांव तक सोने के जेवर पहने हुए थे। वह स्त्री कभी नाच रही, कभी कूद रही और कभी अपना सिर पीटते हुए रोने लगती। ये सब देखने के बाद वीरवर उसके पास गया औरउससे ये सब की वजह पूछने लगा। स्त्री ने वीरवर को उत्तर देते हुए कहा –
“मैं राजलक्ष्मी हूं। मैं इसलिए रो रही हूं, क्योंकि राजा रूपसेन की जल्द ही मृत्यु होने वाली है। राजा की कुंडली में अकाल मृत्यु लिखी हुई है। अब उनके जैसा न्यायवादी, दयालु और कुशल राजा की मृत्यु हो जाएगी, तो मुझे किसी और के शासन में रहना पड़ेगा इसलिए मैं बहुत उदास हूं।”
राजा रूपसेन की मृत्यु की बात सुनने के बाद वीरवर ने स्त्री से पूछा, “क्या इस अनहोनी को टालने का कोई उपाय नहीं है?
राजलक्ष्मी ने जवाब में कहा – “उपाय तो है लेकिन क्या तुम उसे करने में सक्षम होगे।”
वीरवर बोला – “आप मुझे उपाय बताएं, मुझसे जो भी हो पाएगा वो जरूर करूंगा।”
वीरवर की बातों को सुनने के बाद राजलक्ष्मी बोली –
“यहां से कुछ दूर पूर्व दिशा में एक मंदिर है। यदि उस मंदिर की देवी के चरणों में तुम अपने बेटे की बलि देते हो, राजा पर आने वाली मुसीबत टल जाएगी। उसके बाद राजा आने वाले 100 सालों तक बिना किसी तकलीफ के अच्छे से जीएंगे।”
स्त्री की बात सुनने के बाद वीरवर वहां से अपने घर लौट गया और वहां अपनी पत्नी को सारी कहानी बताई। इतनी देर में उसके बेटा और बेटी भी जग गए। जब वीरवर के बेटे को बलि के बारे में पता चला, तो वह खुशी-खुशी देवी के चरणों में बलि देने के लिए तैयार हो जाता है। वीरवर का बेटा बोलता है कि सबसे पहले आपका आदेश, दूसरा राजा की जान बच जाएगी, तीसरा देवी के चरणों में मृत्यु मेरे लिए सौभाग्य की बात है। आप अभी चलिए, मैं आपके साथ चलने के लिए तैयार हूं। वीरवर अपने पुत्र की बातों को सुनने के बाद अपने सभी परिवार को साथ लेकर मंदिर पहुंच गया। मंदिर पहुंचने के बाद वीरवर अपने पास से तलवार निकलकर बोला, हे देवी माँ बलि स्वीकार करो और मेरे राजा को लंबी उम्र दो और उसने अपनी तलवार से अपने बेटे का सिर धड़ से अलग कर दिया।
भाई को मरता हुआ देखकर वीरवर की बेटी भी माता के चरणों में अपना सिर पटककर वहीं कालवश हो गई। बेटा और बेटी खोने के बाद वीरवर की पत्नी ने कहा कि दोनों बच्चों के जाने के बाद उसे भी जिंदा नहीं रहना है और उसने वीरवर के हाथों से तलवार ली और अपना सिर माँ के चरणों में भेंट कर दिया। अपने पूरे परिवार को खोने के बाद वीरवर ने सोचा अब वो अकेला है, तो उसके जीने का क्या फायदा है। इसके बाद वीरवर सामने रखी तलवार से खुद को खत्म कर लेता है।
राजा रूपसेन को जब इसकी खबर मिली, तो वह भी मंदिर पहुंचे और सब देखकर बहुत दुखी हुए। उन्होंने सोचा कि मेरी जान बचाने के लिए चार लोगों ने अपनी जान दे दी, ऐसे में मेरे राजा होने पर मुझे शर्म आनी चाहिए, ऐसे जिंदा रहकर भी मैं क्या करूंगा। ये सोचते हुए राजा ने अपनी तलवार निकाल ली और जैसे वह अपनी गर्दन काटने जा रहा था कि तभी वहां पर देवी मां सामने आ गई।
देवी मां ने कहा – “राजन मैं तुम्हारी बहादुरी से बहुत खुश हूं। तेरी जो इच्छा होगी मैं उसे पूरा करूंगी।”
देवी की बातों को सुनने के बाद राजा ने देवी से वीरवर के परिवारवालों को फिर से जिंदा करने की प्रार्थना की। देवी ने तुरंत वीरवर और उसके परिवार के लोगों को जिंदा कर दिया।
यह कहानी खत्म होते ही हमेशा की तरह फिर बेताल बोला -“तो बताओ राजा विक्रम, इन सभी में सबसे बड़ा बलिदान किसने दिया होगा। अगर तुम उत्तर जानते हुए भी नहीं बोले तो तुम्हारा सिर फट जाएगा।”
तब विक्रमादित्य ने कहा कि राजा ने सबसे बड़ा बलिदान दिया है। बेताल ने पूछा पर ऐसा क्यों?
विक्रम ने बोला – “अपने पिता की आज्ञा का पालन करना हर बेटे का धर्म होता है। सेवक ने अपने राजा की जान बचाने के लिए अपने प्राण त्याग दिए और वह उसका कर्म है। वहीं राजा अपने सेवक की जान बचाने के लिए अपनी जान का बलिदान देने के लिए तैयार हो गया। इसलिए राजा का बलिदान ही सबसे बड़ा है।”
विक्रम से इतना सुनते ही बेताल ने जोर से ठहाका लगाया और जाकर फिर पेड़ पर लटक गया।
विक्रम बेताल की किसका बलिदान बड़ा कहानी से यह सीख मिलती है कि एक सच्चा राजा और नेता वही हो सकता है, जो अपनी प्रजा की कद्र करे और उसके लिए अपनी जान की बाजी लगाने में संकोच नहीं करे।
यह कहानी विक्रम-बेताल की मशहूर कहानियों में आती है। राजा विक्रमादित्य और बेताल की कहानियों का संग्रह बेताल पचीसी भी कहलाता है।
किसका बलिदान बड़ा कहानी का नैतिक यह है कि कैसे एक न्यायप्रिय और परोपकारी राजा के राज्य में उसकी जनता खुश थी और साथ ही राजा ने अपने सेवक की जान बचाने के लिए अपनी जान की बिलकुल भी चिंता नहीं की है।
यदि आपके मन में सबके लिए निस्वार्थ भाव है तो न आपके साथ बुरा होगा और न ही आप दूसरों का कभी बुरा सोच पाएंगे।
इस कहानी से ये निष्कर्ष सामने आता है कि एक सच्चे राजा और देश के नेता की परख होती है, कि वह मुसीबत आने पर अपने राज्य और जनता के लिए क्या कर सकता है। एक सच्चा कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति कभी भी अपनी भलाई के लिए अपनी प्रजा को नुकसान नहीं पहुंचाएगा, उसके लिए चाहे उसे अपनी जान क्यों न गवानी पड़े।
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