बच्चों के सामने माता-पिता के लड़ने के 10 गलत प्रभाव

बच्चों के सामने माता-पिता के लड़ने के 10 गलत प्रभाव

अक्सर पेरेंट्स के बीच किसी बात या मुद्दे को लेकर बहस हो जाती है। लेकिन जब यह बच्चों के सामने हो तो उन पर इसका इमोशनल और मेंटल दोनों ही तरह से बुरा असर पड़ता है। यहाँ तक कि कुछ देशों में ऐसा करना बाल दुर्व्यवहार के समान माना जाता है!

कपल के बीच चीजों या किसी विषय को लेकर असहमति हो सकती है। लेकिन, जिम्मेदार माता-पिता होने के नाते, आपको यह समझना होगा कि अपने बच्चे के सामने रोजाना झगड़े करने से उन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ सकता है। यह न केवल उनके बचपन को खराब कर सकता है बल्कि सारी जिंदगी इन इमोशनल घावों को भरने नहीं देता है। इसलिए, पेरेंट्स के झगड़ों से बच्चों पर पड़ने वाले इफेक्ट को ध्यान में रखें। यहाँ आपको बताया गया है कि किस वजह से आपको बच्चे के सामने झगड़ा नहीं करना चाहिए ।

माता-पिता के झगड़ों से बच्चों पर पड़ने वाले 10 बुरे प्रभाव

बहुत सारे पेरेंट्स यह सोचते हैं कि बच्चों का बड़ों की जिंदगी और उनकी समस्याओं को लेकर कोई दृष्टिकोण नहीं होता, इसलिए उन्हें बातें और झगड़े नहीं समझ आएंगे। हालांकि, हम बड़े जितना सोचते हैं, बच्चे उससे ज्यादा होशियार होते हैं। ठीक उसी तरह कि जब बच्चा बोलना नहीं जानता है, तब भी अपनी माँ के एक्सप्रेशन समझता है कि कब वो गुस्से में है, कब खुश है, उसी तरह बच्चे टोन समझते हैं और जब दो बड़े झगड़ा कर रहे होते हैं तो वे उनके चेहरे के भावों को समझते हैं।

यहाँ बच्चों के सामने पेरेंट्स के लड़ने से उन पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव इस प्रकार दिए गए हैं।

1. असुरक्षा की भावना

घर वही होता है जहाँ बच्चे को प्यार मिले उसकी केयर की जाए। बच्चों के सामने लड़ने वाले पेरेंट्स के बीच बहुत टेंशन बना रहता है, जिससे बच्चा डर, घबराहट और असहाय महसूस करता है। इस प्रकार इनसिक्योरिटी यानी असुरक्षा की भावना बच्चे में सारी जिंदगी रह जाती है।

2. अपराध बोध और शर्म महसूस करना

बच्चे अक्सर यह मानने लगते हैं कि उनके पेरेंट्स के बीच होने वाली लड़ाई का कारण वह हैं। यह बात उन्हें इमोशनली बहुत ज्यादा परेशान करती है।

3. आत्मसम्मान में कमी 

असुरक्षा और अपराध बोध की भावना से आपके बच्चे को लगने लगता है कि उसकी जरूरत किसी को नहीं है और किसी को उसकी परवाह नहीं है। ऐसे में वह अपने आत्मसम्मान को कम होते हुए पाता है। जो हमेशा के लिए उसकी पर्सनल और प्रोफेशनल रिलेशनशिप को खराब कर सकता है।

जैसा कि इस स्टडी में बताया गया है, जो बच्चे लगातार अपने पेरेंट्स को लड़ते हुए देखते हैं, उन्हें सही व गलत के बीच फर्क करने में परेशानी होती है। उनके माता-पिता लड़ते हैं लेकिन फिर रात में एक ही कमरे में सोते हैं, वे लड़ते नहीं हैं, लेकिन चीजों पर सहमत भी नहीं होते हैं जिसे पैसिव-अग्रेसिव फाइट कहते हैं, बच्चा इस कॉन्फ्लिक्ट के कारण बहुत संघर्ष करता है और अक्सर इस स्थिति के लिए खुद को दोषी मानता है, जिसके परिणामस्वरूप उसका आत्मसम्मान कम होने लगता है।

4. किसी एक का पक्ष लेने में तनाव महसूस करना

बच्चे आमतौर पर माता-पिता दोनों को खुश करना चाहते हैं और इस स्थिति में किसी एक का पक्ष लेना उनके लिए दबाव भरा हो सकता है। उन्हें झगड़े का आधार नहीं पता होता है तो वे किसका पक्ष लें, ये नहीं समझ पाते हैं और यह उनके अंदर और कॉन्फ्लिक्ट पैदा करता है।

ज्यादातर ये प्रेशर कि बच्चे को किसी एक की साइड लेनी है, वो खुद पेरेंट्स की तरफ से आता है, जो कि दुर्भाग्यपूर्ण है। बच्चों को कभी भी बहस का मुद्दा नहीं बनाया जाना चाहिए, न ही उन्हें कभी बहस के बीच में खींचा जाना चाहिए और न ही किसी एक का पक्ष लेने के लिए प्रेशर बनाया जाना चाहिए।

5. खराब रोल मॉडल

बच्चों के लिए, माता-पिता ही उनके पहले और सबसे प्रभावशाली रोल मॉडल होते हैं। इसलिए वे जो आपको बोलते हुए और करते हुए देखते हैं उसे कॉपी करते हैं। रोल मॉडल के रूप में, अगर हम बच्चों के सामने खराब तरीके से बात करते हैं, तो वे बड़े होकर बात करने के इस तरीके को ही अपनाएंगे। यह न केवल उनके पर्सनल रिलेशनशिप को बल्कि प्रोफेशनल लाइफ को भी प्रभावित करता है।

6. खराब पढ़ाई-लिखाई और सेहत की समस्याएं

पेरेंट्स की लड़ाई बच्चे के दिमाग में रह जाती है। इससे उन्हें अपने काम पर ध्यान लगाने में मुश्किल होती है, जो उनकी पढ़ाई-लिखाई पर भी बुरा प्रभाव डालती है। उम्र से ज्यादा दिमाग का ओवरवर्क करने से बच्चे को बीमारियां और रोग होने लगते हैं। अमेरिकी संस्था यूसीएलए द्वारा 50 से अधिक रिसर्च पेपर के रिव्यू से ये निष्कर्ष निकाला गया कि जो बच्चे लड़ाई झगड़े वाले घरों में बड़े होते हैं, उनमें बड़े होने के बाद स्वास्थ्य समस्याएं देखे जाने की अधिक संभावना होती है, जैसे वैस्कुलर डिसऑर्डर, इम्यून डिसऑर्डर।

7. मेंटल और बिहेवियरल डिसऑर्डर 

लड़ाई और बहस से दिमाग पर गहरा असर पड़ता है और ये धीरे-धीरे अंदर से भावनाओं को खत्म कर देता है। इसका गहरा प्रभाव बच्चों में अधिक पड़ता है, क्योंकि चीजों से उबरने की क्षमता उनमें ज्यादा नहीं होती है। वे बच्चे जो लड़ाई-झगड़े वाले एंवायरमेंट में बड़े होते हैं, उनमें व्यावहारिक समस्याएं ज्यादा देखी जाती हैं। ऐसे बच्चे अपने पेरेंट्स को देख कर या तो खुद वैसे बन जाते हैं या लापरवाह हो जाते हैं (स्कूल में झगड़े करते हैं, उपद्रवी बन जाते हैं), या फिर सारी चीजों को छोड़ कर इंट्रोवर्ट यानी अंतर्मुखी हो जाते हैं और किसी से कोई सोशल कांटेक्ट नहीं रखते हैं। 

ज्यादा गंभीर मामले में, वे मेंटल डिसऑर्डर का शिकार बन सकते हैं जैसे अटेंशन डेफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर (एडीएचडी), डिप्रेशन, ऑब्सेसिव-कम्पलसिव डिसऑर्डर (ओसीडी)। इसके अलावा, यह भी देखा गया है कि ऐसे माहौल में पलने वाले बच्चों में आगे चलकर नशे की आदत लगने की संभावना ज्यादा होती है।

मेंटल डिसऑर्डर के डेवलप होने के कारणों की जड़ में पेरेंट्स के बीच चल रहा संघर्ष होता है, जो बच्चे के ब्रेन डेवलपमेंट को प्रभावित करता है। ऐलिस शिमरहॉर्न द्वारा की गई एक स्टडी के अनुसार, इस प्रकार के माहौल वाले घर के बच्चे ज्यादा सतर्क रहते हैं, वे लगातार अपने आसपास के वातावरण का आकलन करते रहते हैं, और आने वाली तनाव भरी परिस्थिति के लिए खुद को तैयार करने लगते हैं। लगातार सतर्कता बरतने से बच्चे के अलग-अलग इमोशन पर रिएक्ट करने की क्षमता प्रभावित होती है।

8. गलत कामों पर नॉर्मल रिएक्ट करना 

शाब्दिक, शारीरिक या मानसिक उत्पीड़न भी एक सीरियस मुद्दा है, खासकर अगर माता-पिता शारीरिक रूप से बच्चे के सामने लड़ते हैं। एक बच्चा जिस घर में बड़ा हो रहा होता है, अगर उस घर का माहौल ऐसा होता है, तो उसे लगता है कि इस तरह का बर्ताव करना हमेशा सही है। ऐसे में बच्चे जब असली दुनिया में कदम रखते हैं, तो उन्हें बहुत परेशानी होती है।

9. दूसरे रिश्तों का भी प्रभावित होना

बिहेवियरल पैटर्न, व्यवहार जो बच्चा अपने घर के खराब माहौल से सीखता है वह उसके व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाता है, और न सिर्फ उसके माता-पिता के साथ के संबंधों को बल्कि उसके बाकी के दूसरे सभी रिश्तों को प्रभावित करता है। इसलिए, माता-पिता के लड़ने से बड़े स्तर पर दोस्ती, रोमांटिक रिलेशनशिप, वर्क बैलेंस और सोशल स्किल प्रभावित होती है।

10. बच्चे के व्यक्तित्व पर प्रभाव

ऐसा नहीं है कि माता-पिता को इस बात का एहसास नहीं होता कि बच्चों के सामने लड़ना गलत है और हममें से कई लोग बच्चों के सामने ऐसा न करने की कोशिश भी करते हैं। हालांकि, इन झगड़ों का प्रभाव बच्चों पर मिट्टी में पैरों के निशान छोड़ने जैसा है – एक बार जब कोई गलत चीज हो जाए तो उसे ठीक नहीं किया जा सकता है। जो बच्चे अपने माता-पिता को लड़ते-झगड़ते देखते हुए बड़े होते हैं, उनमें हर समय बुली करना, कम्पलसिव बिहेवियर, इनफ्लेक्सिबिलिटी जैसे पर्सनालिटी इशू देखे जा सकते हैं। यह न केवल उनकी पर्सनल बल्कि प्रोफेशनल और सोशल लाइफ को भी प्रभावित करता है।

बच्चों पर भावनात्मक रूप से अपमानजनक संबंधों का प्रभाव

जब दो वयस्कों के बीच, या एक वयस्क और एक बच्चे के बीच के रिश्ते प्रभावित होते हैं तब शारीरिक और यौन शोषण पर सबका ध्यान जाता है, जबकि मानसिक शोषण को नजरअंदाज कर दिया जाता है, खासकर भारतीय संस्कृति में। पुरानी पीढ़ी के लोग कह सकते हैं कि वे ज्यादा सहनशील थे और मजाक या व्यंगपूर्ण बातों को बर्दाश्त कर लेते थे, लेकिन इन दिनों पेरेंट्स स्ट्रिक्ट नहीं होते हैं और अपने बच्चे के साथ कड़ाई से बर्ताव या उन्हें टफ लव दिखाने में डरते हैं।

हालांकि, टफ लव दिखाना और मजाक के नाम पर लगातार नेगेटिव और व्यंगात्मक बातें करना दो अलग-अलग चीजें है। जहाँ पहली चीज की समय-समय पर जरूरत पड़ती है वहीं दूसरी साइकोलॉजिकल मालट्रीटमेंट के अंतर्गत आती है (इसके साथ ही बुली करना, धमकी देना, बहुत ज्यादा अपमान करना, बिलकुल अलग कर देना आदि) और इसका हमारे स्वीकार करने से कहीं ज्यादा असर पड़ता है।

  • मानसिक शोषण का शिकार होने वालों में शारीरिक शोषण के समान शिकार होने जैसे मेंटल डिसऑर्डर और कभी-कभी इससे भी खराब हालात डेवलप हो सकते हैं।
  • मानसिक शोषण के शिकार में एंग्जायटी, डिप्रेशन, पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (पीटीएसडी), आत्महत्या के विचार आदि कॉमन डिसऑर्डर शामिल हैं।
  • मानसिक दुर्व्यवहार डिप्रेशन, एंग्जायटी, रिश्तों में समस्याएं और नशे की लत (जब शारीरिक और यौन शोषण के साथ तुलना की जाती है) से जुड़ा होता है।
  • शारीरिक और यौन शोषण के मामले में साक्ष्यों की कमी होने पर दिखने वाले व्यवहार से भी मानसिक शोषण का निदान और ट्रीटमेंट करना ज्यादा मुश्किल होता है।

तो यह सब अपने बच्चों के सामने लड़ने वाले पेरेंट्स से कैसे जुड़ा है? जैसा कि कहा जाता है कि बच्चे जो देखते हैं, वही करते हैं।

न केवल आपकी लड़ाई आपके बच्चे को इमोशनली प्रभावित करती है, बल्कि यह उसे गलत चीजें सिखाती है। इसके साथ ही जब आप किसी भी प्रकार से उसे अपनी लड़ाई का हिस्सा बनाते हैं, तो ये किसी मानसिक शोषण से कम नहीं होता है।

बच्चों को झगड़े से प्रभावित होने से कैसे रोकें

कोई माता-पिता यह नहीं चाहते हैं कि उनका बच्चा इससे प्रभावित हो, लेकिन वो हमेशा कॉन्फ्लिक्ट से नहीं बच सकते हैं! तो यह चर्चा का विषय है कि हम क्या कर सकते हैं। कैसे बच्चे पर पड़ने वाला प्रभाव कम किया जा सकता है।

साइकोलोजिस्ट और मैरिटल कॉन्फ्लिक्ट एंड चिल्ड्रन: एन इमोशनल सिक्योरिटी पर्सपेक्टिव के लेखक ई. मार्क कमिंग्स के शब्दों में, वाद-विवाद रोजमर्रा की जीवन का एक आम हिस्सा है। झगड़ा कैसे होता है और इसे कैसे सुलझाया जाता है और विशेष रूप से इससे बच्चों को कैसा महसूस होता है, इन बातों से बच्चों पर पड़ने वाला प्रभाव तय होता है। यह कई स्टडीज द्वारा साबित किया गया है कि कई बार पेरेंट्स के बीच बातचीत बंद होने, कोल्ड वॉर, पैसिव-अग्रेसिव लड़ाई और आपसी अवरोध, असल झगड़े से ज्यादा बुरा असर डालते हैं।

तो कहने का मतलब यह है कि बहस करें मगर नीचे बताई गई तीन बातों को अपने ध्यान में रखें! 

  1. कोशिश करें और इस तरह की बातें जिनसे बहस हो, बच्चे के सामने न करें। अगर फिर भी आपको बात करनी है तो दूसरे कमरे में जाकर धीमी आवाज में बात करें। बेहतर है कि जब बच्चा सो जाए तब आप बात करें और उससे पहले बच्चे के सामने सामान्य वार्तालाप रखें में। उसी समय तुरंत कोल्ड वॉर न शुरू कर दें।
  2. यदि आपका बच्चा आपकी लड़ाई का गवाह बनता है, तो यह भी खयाल रखें कि वे लड़ाई के बाद आप और आपके पति सुलह करते हुए भी दिखें। वैसे न लड़ना ज्यादा बेहतर है, लेकिन लड़ाई हो जाए तो तीन अहम चीजें घर में फॉलो करें। 
  • हमेशा लड़ाई के बाद माफी मांगनी चाहिए।
  • झगड़े कभी परमानेंट नहीं होते।
  • आप एक-दूसरे के प्रति गुस्सा हो सकते हैं मगर गलत शब्दों का प्रयोग या रूखा व्यवहार न करें।
  1. अंत में, अगर आप दोनों के बीच चीजें इतनी खराब हो रही हैं कि अलगाव तक कि बात आ जाती है तो आप पहले किसी से काउंसलिंग करें। आप एक-दूसरे को छोड़ना चाहते हैं और अपने रिश्ते को जारी नहीं रख सकते हैं, तो ठीक है। काउंसलिंग लेने का मतलब सिर्फ एक दूसरे से सहमत होना या पैच अप करने को लेकर नहीं है। जबकि यह आदर्श है ( विशेषतः जब आपका बच्चा इन्वॉल्व हो), काउंसलिंग आपको अन्य तरीकों से भी फायदा पहुँचा सकती है। 
  • यह आपको अपने बच्चे को कम से कम नुकसान पहुँचने में मदद करती है ।
  • यह आप दोनों के अलगाव की खबर को बच्चे को बेहतर तरीके बताने में और उससे डील करने में मदद करती है।
  • यह आपको अलगाव के बाद अभिभावक होने के नाते अपनी जिम्मेदारियों को निभाने में मदद करती है जैसे कि (बच्चे को कॉम्पिटिटिव नहीं बनाना है, या दूसरे पार्टनर के प्रति बच्चे के मन में जहर नहीं डालना है, बच्चे को माँ और पिता, दोनों के साथ समान समय प्राप्त करने में कैसे मदद करनी है, आदि)। जॉइंट कस्टडी के मामलों में यह विशेष रूप से महत्वपूर्ण है।
  • यदि आप अकेले बच्चे की कस्टडी लेने के लिए अपील कर रही हैं, तो काउंसलिंग उसे दूसरे पेरेंट्स की अनुपस्थिति से उबरने में मदद करेगी।

आप बताएं कि आप कैसे आपके और अपने पति के बीच के झगड़ों को कैसे सुलझाती हैं, बिना बात को बड़ा किए या बच्चे के सामने तमाशा किए! अपने टिप्स हमारे साथ शेयर करें, हमें आपके विचार जानकर अच्छा लगेगा।

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