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यह महाभारत की कहानी उन अनेक कथाओं में से एक कथा है जो बच्चों को नीति और साहस का पाठ पढ़ाती है। यह कहानी अर्जुन और सुभद्रा के पुत्र अभिमन्यु की है जिसने केवल 16 वर्ष की आयु में युद्ध में लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त किया था। अभिमन्यु ने अपनी माँ के गर्भ में ही युद्ध की एक जटिल नीति चक्रव्यूह को तोड़ना सीख लिया था। जब महाभारत का युद्ध हुआ तब कौरवों के सेनापति द्रोणाचार्य ने पांडवों को हराने की रणनीति से चक्रव्यूह की रचना की। अभिमन्यु ने अभूतपूर्व पराक्रम का प्रदर्शन करके चक्रव्यूह तोड़ तो दिया लेकिन कौरवों के 7 महारथियों से अकेले लड़ते हुए युद्ध में उसकी मृत्यु हो गई।
महाभारत की इस कथा में अनेक पात्र हैं –
इस कहानी की शुरुआत तब होती है जब सुभद्रा गर्भवती थी। एक बार रात को अर्जुन अपनी गर्भवती पत्नी सुभद्रा के साथ बात कर रहा था जब वह उसे नई युद्ध संरचना, चक्रव्यूह के बारे में बताता है। चक्रव्यूह यानी युद्ध में सैनिकों को खड़ा करके एक ऐसी जटिल गोलाकार संरचना का निर्माण करना था जिसमें कई परतें होती हैं। इस व्यूह से बाहर निकलना प्रवेश करने की तुलना में कहीं अधिक कठिन था। सुभद्रा के गर्भ के अंदर उसका होने वाला पुत्र अभिमन्यु भी अपने पिता से इस व्यूह रचना के बारे में सुन रहा था। अर्जुन सुभद्रा को बता रहा था कि चक्रव्यूह में कैसे प्रवेश किया जाता है लेकिन तभी सुभद्रा को नींद आने लगी और अर्जुन ने बात वहीं रोक दी। गर्भ में पल रहा अभिमन्यु अपने पिता से चक्रव्यूह से बाहर निकलने की रणनीति नहीं सीख पाया।
इसके कुछ समय बाद पांडव कौरवों से द्यूत क्रीड़ा में अपना राजपाट हार गए और उन्हें 12 वर्ष के वनवास और 1 वर्ष के अज्ञातवास पर जाना पड़ा। इस समय के दौरान अभिमन्यु का जन्म हुआ और वह अपनी माँ के साथ अपने मामा श्री कृष्ण के घर द्वारका में पलने लगा। समय आने पर पांडव वनवास व अज्ञातवास से लौटे लेकिन दुर्योधन ने जब उन्हें उनका राज्य वापस करने से मना कर दिया। जब कई प्रयासों व चर्चाओं के बाद भी वह नहीं माना तो पांडवों और कौरवों के बीच युद्ध होना तय हो गया। इस समय अभिमन्यु की आयु मात्र 16 वर्ष थी।
निश्चित समय पर पांडवों और कौरवों के बीच कुरुक्षेत्र में युद्ध छिड़ गया। 12 दिनों तक भयंकर घमासान मचा रहा और कौरवों के सेनापति भीष्म को अंततः अर्जुन ने शरशैय्या लिटा दिया। 13वें दिन, कौरवों के सेनापति बने गुरु द्रोणाचार्य जो चक्रव्यूह की रचना जानते थे। द्रोणाचार्य ने पांडवों के सबसे बड़े भाई युधिष्ठिर को पकड़ने की रणनीति बनाई। इसके पीछे उनका उद्देश्य था कि ऐसा होने पर युद्ध जल्द ही समाप्त हो जाएगा और कौरवों की जीत होगी। इस लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए, उन्होंने अपनी सेना को अभेद्य चक्रव्यूह संरचना में खड़ा करने और युधिष्ठिर को फंसाने का निर्णय लिया।
चक्रव्यूह भेदने की विद्या द्रोणाचार्य के अलावा केवल भीष्म, कृष्ण और अर्जुन को ही ज्ञात थी। इसलिए रणनीति के अनुसार कौरवों का एक योद्धा अर्जुन को युद्ध क्षेत्र से बहुत दूर ले गया और उसे वहां उलझा दिया ताकि वह चक्रव्यूह भेदने के लिए न आ सके। कृष्ण अर्जुन के सारथी थे इसलिए वह भी उसके साथ थे। अब युद्ध भूमि के मध्य में चक्रव्यूह की रचना की गई।
व्यूह रचना का समाचार सुनकर पांडव खेमे में हताशा की लहर दौड़ गई। अर्जुन का कहीं पता नहीं था। युधिष्ठिर और भीम को चिंता ने घेर लिया तभी अभिमन्यु को अपनी माँ के गर्भ में सुना हुआ चक्रव्यूह तोड़ने का विवरण याद आ गया। उस वीर योद्धा ने अपने पिता के बड़े भाइयों से कहा –
“तातश्री, मुझे व्यूह में प्रवेश करने की कला ज्ञात है लेकिन बाहर निकलने की नहीं इसलिए आप सभी मेरे पीछे चलिए और व्यूह के केंद्र में जाकर हम एक साथ युद्ध करके कौरवों को हरा देंगे।”
अभिमन्यु की बात सुनकर पांडवों को धीरज तो मिला लेकिन अभिमन्यु की आयु बहुत कम थी इसलिए युधिष्ठिर उसकी बात मानने से हिचकिचा रहे थे। हालांकि कोई अन्य उपाय न होने के कारण वह अंततः अभिमन्यु को व्यूह में भेजने के लिए तैयार हो गए।
अभिमन्यु कुशल योद्धा था। उसने प्रवेश द्वार को बहुत आसानी से भेद दिया और व्यूह में प्रवेश कर गया। पांडव अपने रथ पर उसके पीछे ही थे। लेकिन आगे जाकर वे व्यूह रचना में फंस गए और अकेला अभिमन्यु उसकी परतों को भेदते हुए केंद्र में पहुँच गया। अब अभिमन्यु अकेला था और उसके सामने थे कौरवों के 7 महारथी। महाभारत युद्ध की शुरुआत में भीष्म ने युद्ध के नियम बनाए थे जिनमें से एक यह भी था कि एक योद्धा से एक ही योद्धा लड़ेगा। लेकिन कौरवों ने नियम की धज्जियां उड़ा दीं और छल करते हुए अभिमन्यु को चारों तरफ से घेर लिया।
वीर अभिमन्यु की ताकत और युद्ध शैली देखकर कौरव भी अचंभित थे। वह अपने प्रत्येक विरोधी के साथ अभूतपूर्व पराक्रम के साथ लड़ रहा था। निःसंदेह यह एक हारी हुई लड़ाई थी, लेकिन अपना रथ, तलवार, धनुष-बाण और भाला खोने के बाद भी अभिमन्यु ने हार नहीं मानी। अंत में उसने अपने टूटे हुए रथ के एक पहिए को शस्त्र के रूप में उठाया और लड़ने लगा। लेकिन सशस्त्र और एक साथ खड़े कौरवों के उन 7 महारथियों ने अंततः उसका वध कर दिया।
महाभारत में चक्रव्यूह में अभिमन्यु के वध की कहानी से हमें दो शिक्षाएं मिलती हैं। पहली यह कि परिस्थिति कितनी भी विकट हो हमेशा साहस के साथ उससे लड़ना चाहिए। अभिमन्यु जानता था कि व्यूह भेदने में उसके प्राण जा सकते हैं लेकिन उसमें वीरता, समर्पण, कर्तव्य व त्याग की भावना और आत्मविश्वास कूट-कूट कर भरा था। इसलिए उसने चिंताग्रस्त युधिष्ठिर का साथ देने का निर्णय लिया।
कहानी की दूसरी शिक्षा यह है कि अधूरा ज्ञान घातक हो सकता है। अभिमन्यु की वीरता और निडरता निश्चित रूप से सभी के लिए प्रेरणादायक है लेकिन उसकी आयु कम थी और वह एक नया योद्धा था। इसलिए उसका साहस उसके जीवन की रक्षा नहीं कर सका।
सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु की कहानी महाभारत की सबसे महत्वपूर्ण और लोकप्रिय कहानियों में से एक है। यह बच्चों को अदम्य साहस का पाठ भी देती है। इसलिए इसे पौराणिक और साथ ही प्रेरणादायक कहानियों में गिना जाएगा।
अभिमन्यु धनुर्धारी अर्जुन और श्री कृष्ण की बहन सुभद्रा के पुत्र थे। अभिमन्यु भी दुनिया के सबसे महान धनुर्धारियों में से एक थे। इन्होंने माँ के गर्भ में ही चक्रव्यूह को भेदना सीख लिया था।
अभिमन्यु की पत्नी का नाम उत्तरा था जो राजा विराट की पुत्री थी।
अभिमन्यु के पुत्र नाम परीक्षित था।
अभिमन्यु 16 वर्ष की आयु में वीरगति को प्राप्त हुआ।
अभिमन्यु वध की कथा वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत के द्रोण पर्व से ली गई है।
हमारा महान महाकाव्य, महाभारत वीरता और निडरता की कहानियों से भरा है, लेकिन अभिमन्यु की कहानी से ज्यादा साहसी कुछ भी नहीं है। बच्चों को हमेशा ऐसी कहानियां सुननी चाहिए जिनसे उन्हें कुछ सीख मिल सके। जीवन के शुरुआती वर्ष चरित्र निर्माण में बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं। आप अपने बच्चों से जैसे बात करेंगे, उन्हें जो सिखाएंगे और उन्हें जो दिखाएंगे वे उसे ही सही मानेंगे। इसलिए आपको बेहद संवेदनशीलता और समझदारी के साथ उन्हें दुनिया से परिचित कराना है और इसके लिए नैतिक, पौराणिक व प्रेरणादायक कहानियां एक सशक्त माध्यम हैं।
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