सिंहासन बत्तीसी – पहली पुतली रत्नमंजरी की कहानी l The Story Of Singhasan Battisi – First Putli Ratnamanjari Story In Hindi

First putli ratnamanjari singhasan battisi story in hindi

प्राचीन मालवा यानि उज्जैन में राजा भोज का राज्य था। एक बार उन्हें राज्य की सीमा में एक गांव के पास ऐसे बालक का पता चला जो सामान्य चरवाहे का बेटा था और अन्य बच्चों की तरह ही था लेकिन अगर वह गांव के पास एक टीले पर बैठता तो उसका व्यक्तित्व ही बदल जाता था और वह गांव के लोगों के झगड़ों का सटीक न्याय करने लगता था। राजा भोज ने उस टीले की खुदाई करवाई तो उसके नीचे से एक शानदार सिंहासन निकला। राजा भोज समझ गए कि उस बालक का चमत्कारी व्यवहार इस सिंहासन के स्पर्श से हो रहा था। वह सिंहासन उज्जैन के महान सम्राट विक्रमादित्य का था और उस पर 32 पुतलियां लगी हुई थीं। विक्रमादित्य अपनी न्यायप्रियता और उदारता के लिए प्रसिद्ध थे। भोज के सलाहकारों ने उनसे कहा कि यदि वे सिंहासन पर बैठ जाएं तो वे भी सर्वोत्तम निर्णय देने में सक्षम हो जाएंगे।

राजा भोज ने विक्रमादित्य के सिंहासन पर आसीन होने के लिए एक भव्य यज्ञ का आयोजन किया। यज्ञ पूरा होने के बाद जैसे ही राजा सिंहासन पर बैठने जाते हैं उन 32 में से 1 पुतली जीवित होकर बाहर निकल आती है और कहती है –

“आप एक बुद्धिमान और उदार राजा हैं लेकिन राजा विक्रमादित्य अत्यंत महान सम्राट थे और यदि आप उनके सिंहासन पर बैठना चाहते हैं तो पहले एक कथा सुनिए और फिर उसका निर्णय कीजिए। इसके बाद आप तय कर सकते हैं कि आप सिंहासन पर बैठने के लायक हैं या नहीं।’

सिंहासन से निकली पहली पुतली का नाम रत्नमंजरी था। रत्नमंजरी ने राजा भोज को क्या कथा सुनाई, आगे पढ़िए।

कहानी के पात्र (Characters Of The Story)

सिंहासन बत्तीसी की इस कथा के मुख्य पात्र इस प्रकार हैं –

  • विक्रमादित्य
  • शंख
  • राजा गंधर्वसेन
  •  ब्राह्मणीत
  • भर्तृहरि
  •  चंद्र
  • धन्वंतरि
  • तांत्रिक
  • राजा बाहुबल
  • दीवान लूतवरण

सिंहासन बत्तीसी – पहली पुतली रत्नमंजरी की कहानी (The Singhasan Battisi – First Putli Ratnamanjari Story In Hindi )

Singhasan battisi pahli putli ratnamanjari ki kahani

बहुत समय पहले आर्यावर्त में अम्बावती नाम की एक नगरी थी। अम्बावती के राजा गंधर्वसेन थे। उन्हें सामाजिक वर्ण व्यवस्था पर विश्वास नहीं था और इसलिए उन्होंने सभी चार वर्णों यानी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जाति की स्त्रियों से विवाह किया था। ब्राह्मण स्त्री से हुए बच्चे का नाम ब्राह्मणीत रखा गया। क्षत्रिय स्त्री से तीन बच्चे हुए – शंख, विक्रमादित्य और भर्तृहरि। वैश्य स्त्री की संतान का नाम चंद्र और शूद्र स्त्री की संतान का नाम धन्वंतरि रखा गया।

जब ब्राह्मणीत बड़ा हुआ तो राजा ने उसे अपने राज्य का दीवान नियुक्त किया। लगभग उसी समय, राज्य में अशांति बढ़ गई और ब्राह्मणीत उसे संभाल नहीं सका, इसलिए वह शहर छोड़कर चला गया।

काफी समय तक इधर-उधर भटकने के बाद वह धारा नगरी पहुंचा, जहां कभी उसके पूर्वजों ने शासन किया था। वहां उसे दरबार में एक ऊंचा पद मिला। उचित अवसर पाकर उसने धारा के शासक की हत्या कर दी और खुद गद्दी पर बैठ गया। एक दिन उसने उज्जैन वापस जाने का फैसला किया, लेकिन वहां पहुंचने के कुछ समय बाद ही उसकी मृत्यु हो गई। इधर राजा के दूसरे पुत्र शंख को संदेह था कि कहीं राजा विक्रमादित्य को अपना उत्तराधिकारी न चुन लें। इसी के चलते एक दिन शंख ने राजा की हत्या कर दी और स्वयं उज्जैन का स्वामी बन गया।

जब शंख के छोटे भाइयों, विक्रमादित्य, भर्तृहरि, चंद्र और धन्वंतरि को अपने पिता की हत्या के बारे में पता चला, तो वे राज्य छोड़कर भाग गए। फिर भी, शंख ने अपने सैनिकों को उन्हें ढूंढकर उनका वध करने आदेश दिया। इसमें विक्रमादित्य तो बच गए लेकिन बाकी तीनों भाई मारे गए। शंख को उम्मीद थी कि विक्रमादित्य एक दिन उससे पिता की हत्या का बदला लेने के लिए वापस जरूर आएगा। इसलिए, उसने विक्रमादित्य के ठिकाने का पता लगाने के लिए कई ज्योतिषियों की मदद ली। सभी भविष्यवक्ताओं ने आपस में गहन चर्चा करने के बाद अंततः शंख से कहा –

“महाराज! विक्रमादित्य अभी एक जंगल में रहते हैं। वह एक अविश्वसनीय और प्रतिष्ठित राजा हो सकते हैं।”

यह सुनकर शंख घबरा गया और चिंता में पड़ गया। उसने अपने गुप्तचरों से विक्रमादित्य की तलाश करने को कहा। आखिरकार, गुप्तचरों को जंगल में एक झील दिखी जिसमें विक्रमादित्य का प्रतिबिंब दिख रहा था। उन्होंने तुरंत राजा को संदेश पहुंचाया। शंख ने एक तांत्रिक की सहायता से विक्रमादित्य को मारने की योजना बनाई। योजना ऐसी थी कि तांत्रिक विक्रमादित्य देवी काली की आराधना करने के लिए सिर झुकाने को कहेगा। जैसे ही विक्रमादित्य गर्दन झुकाएगा पास में छुपकर बैठा शंख उसकी गर्दन काट देगा।

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तांत्रिक विक्रमादित्य के पास गया और उसने शंख के कहे अनुसार उसे देवी काली की पूजा के लिए सिर झुकाने को कहा। विक्रमादित्य को कुछ संदेह हुआ और उसने तांत्रिक से इशारे से कहा कि वह उसे दिखाए कि सिर कैसे झुकाना है। तांत्रिक ने जैसे ही सिर झुकाया कुछ दूरी पर छुपे शंख को लगा कि वह विक्रम है और उसने दौड़कर आकर उसकी गर्दन काट दी। तभी खतरे का अंदेशा होने के कारण पहले से ही तैयार बैठे विक्रमादित्य ने शंख के हाथ से तलवार छीनकर उसकी भी गर्दन काट दी और इस तरह अपने पिता की हत्या का बदला ले लिया। शंख को उसके कर्म का फल देने के बाद विक्रमादित्य उज्जैन के राजा बन गए। वह एक सदाचारी, न्यायप्रिय, दानी, उदार व लोकप्रिय राजा थे। आम जनता उनके जैसा शासक पाकर धन्य हो गई थी।

सिंहासन बत्तीसी - पहली पुतली रत्नमंजरी की कहानी

एक बार विक्रमादित्य शिकार के लिए एक जंगल में गए। वहां एक हिरण का पीछा करते करते वे बहुत दूर निकल गए और रास्ता भटक गए। घूमते घूमते वे एक महल के सामने पहुंचे। वह लूतवरण नामक व्यक्ति का महल था जो उस राज्य का दीवान था और उस राज्य का राजा था बाहुबल। राजा बाहुबल राजा विक्रमादित्य से मिलकर बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने उनका आदर आतिथ्य किया।

इसके बाद बातचीत करते हुए लूतवरण ने विक्रमादित्य से राजा बाहुबल की बड़ी प्रशंसा की और उनकी दानवीरता व उदारता के बारे में बताया। लूतवरण ने विक्रमादित्य से कहा –

“आप एक महान राजा बन सकते हैं पर इसके लिए आपको राजा बाहुबल से उनका अतुलनीय सिंहासन मांगना चाहिए, जो उन्हें भगवान इंद्र से मिला था। यह सिंहासन आपको एक प्रभावी शासक बनने में सक्षम बनाएगा।”

शीघ्र ही विक्रमादित्य ने उज्जैन के लिए प्रस्थान करने का निर्णय लिया। राजा बाहुबल ने उन्हें कोई भेंट मांगने का अनुरोध किया। विक्रमादित्य इसी अवसर की तलाश में थे। उन्होंने बाहुबल से उनका असाधारण सिंहासन देने के लिए अनुरोध किया। राजा बाहुबल को एहसास हुआ कि राजा विक्रमादित्य इस विशिष्ट सिंहासन के लिए एकदम उपयुक्त व्यक्ति हैं, इसलिए उन्होंने उन्हें अपना सिंहासन सौंप दिया।

जब राजा विक्रमादित्य सिंहासन के साथ उज्जैन पहुंचे तो उज्जैन की जनता खुशी से झूम उठी। उनके राज्य में आनंद का माहौल और उनका सिंहासन देखने के लिए दूसरे राज्यों के राजा उनसे मिलने आने लगे। राजा विक्रमादित्य ने एक अत्यंत विशाल समारोह का आयोजन किया, जिसमें उन्होंने डेढ़ लाख गायों का दान किया। यह उत्सव पूरे एक साल तक चलता रहा।

कहानी सुनाने के बाद, रत्नमंजरी ने राजा भोज से पूछा –

“क्या आपने राजा विक्रमादित्य जैसी अद्वितीय वीरता दिखाकर यह राज्य जीता है? क्या आपने इतनी बड़ी संख्या में गाएं और अन्य वस्तुएं ब्राह्मणों को देने की उदारता दिखाई है? यदि नहीं, तो इस पर आसीन होने से बचें। यह अद्भुत सिंहासन विक्रमादित्य जैसे शासक के लिए ही उपयुक्त है।”

ऐसा कहकर रत्नमंजरी पुतली आकाश में उड़ गई। राजा भोज सशंकित हो गए। उन्होंने उस दिन सिंहासन पर बैठना टाल दिया और तय किया कि अगले दिन आकर सिंहासन पर आसीन होंगे।

सिंहासन बत्तीसी – पहली पुतली रत्नमंजरी की कहानी कहानी से सीख (Moral of The Singhasan Battisi – First Putli Ratnamanjari Hindi Story)

सिंहासन बत्तीसी – पहली पुतली रत्नमंजरी की कहानी से यह सीख मिलती है कि हमें कभी छल करके कुछ भी हासिल करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए और अपने अधिकारों का उपयोग अच्छे कामों के लिए करना चाहिए।

सिंहासन बत्तीसी – पहली पुतली रत्नमंजरी की कहानी का कहानी प्रकार (Story Type of The Singhasan Battisi – First Putli Ratnamanjari Hindi Story)

सिंहासन बत्तीसी की पहली पुतली रत्नमंजरी की कहानी सिंहासन बत्तीसी की कहानियों के अंतर्गत आती है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)

1. विक्रमादित्य किस राज्य के राजा थे?

विक्रमादित्य उज्जैन के राजा थे।

2. सिंहासन बत्तीसी क्या है?

राजा विक्रमादित्य के सिंहासन में जड़ी 32 पुतलियां ने जीवित रूप में आकर राजा भोज को विक्रमादित्य की उदारता और न्यायप्रियता की कहानियां सुनाई थीं। इन्हीं कहानियों का संग्रह सिंहासन बत्तीसी कहलाता है।

3. राजा भोज कौन थे?

राजा भोज 11वीं शताब्दी के परमार राजा थे जिन्होंने 45 वर्षों तक मध्य भारत के बड़े हिस्से पर राज किया था।

निष्कर्ष (Conclusion)

हमें उम्मीद है कि सम्राट विक्रमादित्य के सिंहासन से जुड़ी ये कहानियां आपके बच्चों को जरूर रोचक लगेंगी। सिंहासन बत्तीसी की प्रत्येक पुतली राजा भोज को विक्रमादित्य के जीवन और साहसिक कार्यों के बारे में एक कहानी सुनाती है, ताकि उसे यह विश्वास दिलाया जा सके कि वह विक्रमादित्य के सिंहासन के योग्य नहीं है। बच्चों को ऐसी कहानियां सुनाने से वे काम उम्र से जीवन के आदर्शों के बारे समझ पाते हैं और उनमें योग्य-अयोग्य की समझ विकसित होती है।