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यह कहानी बेताल की पच्चीस कहानियों से एक है, जिसमें कनकपुर के राजा यशोधन के बारे में बताया गया। उसी नगर के सेठ ने अपनी पुत्री उन्मादिनी के विवाह का प्रस्ताव उनके सामने रखा था, लेकिन ब्राह्मणों के झूठ की वजह से उन्होंने विवाह के लिए इंकार कर दिया। कुछ समय बाद उन्होंने जब उन्मादिनी को देखा, तो वह उसे देखते ही मोहित हो गए। जब उन्हें पता चला की ये वही लड़की है जिसके विवाह का प्रस्ताव उनके लिए आया था और अब वह उनके सेनापति की पत्नी है, उन्हें बहुत अफसोस हुआ। सेनापति ने जानकारी मिलने के बाद राजा को अपनी पत्नी अपनाने के लिए कहा। लेकिन राजा के लिए उनके धर्म और काम से बढ़कर कुछ नहीं था और अंत में वह उन्मादिनी के बारे में सोचते-सोचते मर गए।
एक समय की बात है, कनकपुर शहर में राजा यशोधन का राज था। राजा अपनी प्रजा का बहुत ध्यान रखते थे। कनकपुर में एक सेठ भी रहता था, जिसकी उन्मादिनी नाम की बेटी थी। उन्मादिनी दिखने में बहुत खूबसूरत थी और साथ ही गुणों का भंडार थी, उसकी पहली झलक देखते ही लोग उसे देखते रह जाते थे।
सेठ की बेटी बड़ी हो गई थी, इसलिए उसके पिता ने उसका विवाह करने का फैसला लिया। सबसे पहले सेठ राजा के पास विवाह का प्रस्ताव लेकर पहुंचा। सेठ ने राजा से बोला –
“हे राजन मैं अपनी पुत्री के विवाह के बारे में विचार कर रहा हूं। वह सुंदर, गुणी और बुद्धिमान है। आप इस शहर के राजा हैं और आप जैसा शक्तिशाली, बलवान और गुणी व्यक्ति से बेहतर मेरी पुत्री के लिए कोई नहीं हो सकता है। इस वजह से मैं आपसे निवेदन करता हूं कि आप मेरी पुत्री से विवाह कर लें और उसे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करें और यदि आपकी इच्छा न हो तो भी बता दें।”
सेठ की बातों को सुनने के बाद राजा ने अपने ब्राह्मणों को उसकी बेटी को देखने और उसके गुण को परखने के लिए भेजा। राजा का आदेश सुनकर ब्राह्मण सेठ की बेटी उन्मादिनी को देखने गए। ब्राह्मण सेठ की बेटी को देखकर बहुत प्रसन्न हुए, लेकिन उन्हें इस बात की भी फिक्र हुई की अगर राजा की शादी इतनी सुंदर कन्या से हो गई तो वह उसे ही देखते रहेंगे और उनका अपनी प्रजा पर से ध्यान हट जाएगा। इसी वजह से ब्राह्मणों ने सोचा कि वह उन्मादिनी की खूबसूरती और गुणों की चर्चा राजा से नहीं करेंगे। सभी ब्राह्मण राजमहल पहुंचे और उन्होंने राजा से कहा –
“महाराज वह लड़की अच्छी नहीं है, इसलिए आप उससे विवाह नहीं करें।”
राजा को ब्राह्मणों की बात सच लगी और इसलिए उन्होंने उन्मादिनी से विवाह करने के लिए इंकार कर दिया। उसके बाद सेठ ने राजा के आदेश से उनके ही सेनापति बलधर से विवाह करवा दिया। विवाह के बाद उन्मादिनी खुशहाल जीवन जीने लगी, लेकिन बीच-बीच में वह यह जरूर सोचती थी कि राजा ने उसे बुरी महिला समझा और उससे विवाह करने के लिए मना कर दिया।
कई दिन बीत गए और बसंत का मौसम आया। राजा बसंत मेले का मजा लेने बाहर निकले। राजा के बसंत मेले में आने की बात उन्मादिनी को भी पता चल गई, उसे भी उत्सुकता हुई उस राजा को देखने की जिसने उससे शादी करने के लिए मना कर दिया। इसलिए उन्मादिनी अपने घर की छत पर खड़ी होकर राजा को देखने का इंतजार करने लगी। तभी राजा वहां से अपनी सेना के साथ जा रहे थे और उनकी नजर अचानक छत पर खड़ी उन्मादिनी पर पड़ी और उसे देखते ही राजा मोहित हो गए। उन्होंने अपने सेवक से पूछा, “यह सुंदर कन्या कौन है?” तभी उनके सेवक ने कहा, “महाराज ये उसी सेठ की पुत्री है, जिससे आपने ब्राह्मणों के कहने पर विवाह करने से मना कर दिया था। बाद में इसका विवाह सेनापति बलधर से हुआ।” पूरी कहानी सुनने के बाद राजा ब्राह्मणों से बहुत नाराज हुए और उन्हें शहर छोड़ने का आदेश दिया।
इसके बाद से राजा बहुत निराश और दुखी रहने लगे। राजा शर्मिंदा भी थे कि वह एक ऐसी लड़की के बारे में सोच रहे थे, जो पहले से शादीशुदा है। राजा की हालत देखकर आस-पास के लोग उनकी भावनाएं समझ गए थे। राजा के मंत्री और करीबी लोगों ने उनसे कहा –
“महाराज इसमें उदास होने की क्या जरूरत है, वह आपके सेनापति की बीवी है, आप उससे बात करके उसकी पत्नी को अपना लें।” लेकिन राजा ने अपने मंत्रियों की बात नहीं मानी।
जिस सेनापति बलधर का उन्मादिनी से विवाह हुआ था, वह राजा को बहुत मानता था। जैसे ही उसे राजा की हालत के बारे में पता चला, तो वह तुरंत राजा के पास पहुंचा और बोला –
“हे महाराज! मैं आपका भक्त हूं और वह आपके दास की पत्नी है। मैं खुद उसे आपको भेंट कर सकता हूं। आप उसे अपना लें या फिर मैं उसे मंदिर में छोड़ आता हूं, उसके बाद आप उसे अपना सकते हैं।”
राजा सेनापति की बात सुनने के बाद बहुत क्रोधित हुए और बोले –
“मैं राजा होकर ऐसा गलत काम कभी नहीं कर सकता हूं। तुम मेरे सच्चे दास होने के बावजूद मुझसे ऐसी बात कर रहे हो। यदि तुमने अपनी पत्नी को नहीं अपनाया, तो मैं तुम्हें सजा दूंगा और कभी माफ नहीं करूंगा।”
समय के साथ उन्मादिनी के बारे में सोचते-सोचते राजा का निधन हो गया। राजा की मौत के बाद सेनापति बहुत उदास हुआ और सहन नहीं कर पाया और उसने अपने गुरु को सब बता दिया। सेनापति के गुरु ने कहा, “सेनापति का फर्ज होता है कि वह अपने राजा के लिए अपनी जान दे दे।” यह सुनते ही सेनापति ने राजा की चिता में ही कूदकर अपनी जान दे दी। इस बात की जानकारी जब सेनापति की पत्नी उन्मादिनी को लगी, तो उसने भी अपने पति के लिए प्राणों की आहुति दे दी।
इसके बाद बेताल ने अपनी कहानी रोक दी और राजा विक्रमादित्य से पूछा, कि राजन बताओ राजा और सेनापति में सबसे बड़ा साहसी कौन था? न्यायप्रिय राजा विक्रम ने क्षण की भी देर न करते हुए उत्तर दिया –
“राजा सबसे अधिक साहसी था, क्योंकि उसने अपने राजा होने का कर्तव्य निभाया। उसने सेनापति के कहने पर भी उन्मादिनी को नहीं अपनाया और उसकी याद में मरना बेहतर समझा। सेनापति एक सच्चा सेवक था और इसलिए उसने राजा के लिए अपनी जान दी, इसमें कोई महान बात नहीं है। असल में हिम्मतवाला तो राजा था जिसने अपने राजधर्म और नीति को समझा।”
बस फिर क्या था, विक्रमादित्य का जवाब सुनते ही बेताल फिर से उड़कर पेड़ पर जाकर लटक गया।
विक्रम बेताल की अधिक साहसी कौन कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि असल में साहसी इंसान वही होता है, जो अपने से पहले अपने परिवारवालों और करीबियों का ध्यान रखता है।
यह कहानी विक्रम-बेताल की मशहूर कहानियों में से एक है जो यह बताती है कि किसी दूसरे के भरोसे किसी भी चीज को न परखें बल्कि खुद उसे जानने का प्रयास करें वरना आपको बाद में उस चीज के खोने का पछतावा हो सकता है।
अधिक साहसी कौन कहानी की नैतिकता यह है कि हमें कभी अपने धर्म और कर्म से बढ़कर कुछ नहीं समझना चाहिए, फिर चाहे उसके लिए कोई भी इच्छा क्यों न दबानी पड़े।
सिर्फ अपना मकसद पूरा करने के लिए हमें कभी भी दूसरों का फायदा नहीं उठाना चाहिए। आपके फर्ज के आगे सब बेकार है। जैसे राजा ने अपने राजा होने का फर्ज निभाया, सेनापति ने सच्चा दास और उन्मादिनी ने अपनी पत्नी होने का।
अधिक साहसी कौन कहानी का निष्कर्ष यह है कि चाहे आप राजा हों या सेनापति, आपको अपने धर्म व कर्तव्य का साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए। हमेशा खुद के पहले अपने परिवार और खास लोगों को रखें, इससे आप एक साहसी व्यक्ति बनते हैं।
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