नवजात शिशु का स्क्रीनिंग टेस्ट

नवजात शिशु का स्क्रीनिंग टेस्ट

नवजात शिशु संवेदनशील होते हैं और उन्हें 9 महीने तक गर्भ की सुरक्षा में रहने के बाद अपने नए वातावरण में ढलना पड़ता है। विज्ञान और चिकित्सा जगत में हुई प्रगति ने डॉक्टरों को उसी समय से शिशु की स्थिति की जाँच करने की सुविधा प्रदान की है, जब उसका पहला अंग आकार लेना शुरू कर देता है। हालांकि, बच्चे के जन्म के तुरंत बाद अच्छे स्वास्थ्य और किसी भी तरह की चिकित्सीय परिस्थितियों के बारे में जानने के लिए स्क्रीनिंग करना बहुत महत्वपूर्ण है।

नवजात शिशु की स्क्रीनिंग क्या है?

एक नवजात शिशु का स्क्रीनिंग टेस्ट नवजात शिशुओं पर संभावित घातक या हानिकारक विकारों की जाँच करने के लिए किया जाने वाला एक सरल परीक्षण है, जिसे सामान्य रुप से जन्म के समय पता नहीं लगाया जा सकता है। स्क्रीनिंग, जन्म के तुरंत बाद और कभीकभी अस्पताल छोड़ने से पहले भी की जाती है। यह प्रक्रिया सरल है और इसमें रक्त स्क्रीनिंग के साथसाथ श्रव्य स्क्रीनिंग परीक्षण भी शामिल है।

शिशु की स्क्रीनिंग करना क्यों महत्वपूर्ण है?

नवजात शिशु की स्क्रीनिंग का महत्व यह है कि यह किसी भी प्रतिकूल स्थिति का जल्द पता लगाने में मदद करता है जिस स्थिति से शिशु पीड़ित हो सकता है और यह अन्य किसी प्रकार से नहीं जाना जा सकता है। नवजात शिशु की स्क्रीनिंग के नतीजे डॉक्टरों को शिशु के स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए तुरंत आवश्यक कार्रवाई करने में मदद करते हैं ।

शिशु की स्क्रीनिंग किस वजह से की जाती है

नवजात शिशु की स्क्रीनिंग का सबसे महत्वपूर्ण कारण चिकित्सीय स्थिति का जल्द निदान करना है ताकि शिशुओं को समय पर देखभाल और उपचार प्रदान किया जा सके। इससे यह सुनिश्चित करने में मदद मिलती कि बच्चे का विकास स्वस्थ और सामान्य है।

नवजात शिशु की स्क्रीनिंग में कौन से विकार, परीक्षण में शामिल हैं?

आमतौर पर शिशु की स्क्रीनिंग, विकारों की एक विस्तृत श्रृंखला की जाँच करता है जिसमें निम्नलिखित शामिल हैं:

  • फेनिलकेटोनुरिया (पी.के.यू.): पी.के.यू. एक चयापचय विका है जिसके परिणामस्वरूप शिशुओं को फेनिलएलनिन को संसाधित करने के लिए आवश्यक एन्ज़ाइम की कमी हो जाती है जो बच्चों के सामान्य विकास के लिए महत्वपूर्ण है। नवजात शिशु का पी.के.यू. स्क्रीनिंग परीक्षण, फेनिलएलनिन के अधिक या कम उत्पादन का पता लगाने और समस्या का इलाज करने में मदद कर सकता है।

  • सिकल सेल रोग: यह रोग लाल रक्त कोशिकाओं को प्रभावित करता है जिससे वे चिपचिपी, नाज़ुक व कठोर हो जाती हैं। यह स्थिति रक्त में मौजूद लाल रक्त कोशिकाओं की गति को प्रभावित करती है जो महत्वपूर्ण अंगों को नुकसान पहुँचा सकती है और शिशु के जीवन के लिए घातक संक्रामक खतरा पैदा कर सकती है। यह बीमारी आमतौर पर आनुवंशिक रूप से माँ में मिलती है। नवजात शिशु का स्क्रीनिंग परीक्षण इस बीमारी का पता लगा सकता है और डॉक्टर, उसे को उपयुक्त उपचार प्रदान कर सकते हैं।

  • एम.सी..डी की कमी: एम.सी..डी एक एन्ज़ाइम है जो शरीर में फैटी एसिड के विभाजन में सहायता करता है और एम.सी..डी एन्ज़ाइम की कमी से शिशु में रक्त शर्करा का स्तर कम हो सकता है। यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि इस प्रकार की कमी वाले शिशु नियमित अंतराल पर पौष्टिक भोजन करें और भोजन को छोड़ें नहीं।

  • टायरोसिनेमिया: टाइरोसिनेमिया एक ऐसी स्थिति है जो बौद्धिक विकलांगता, यकृत की समस्याओं या यहाँ तक कि यकृत की विफलता का कारण भी बन सकती है और इसके लिए उपचार का एक विशेष आहार या कई बार यकृत प्रत्यारोपण की आवश्यकता होती है।

  • बायोटिनिडेस कमी: बायोटिनिडेस एक एंजाइम है जो बायोटिन, बी कॉम्प्लेक्स विटामिन का पुनर्चक्रीकरण करता है जो शरीर के भीतर , भोजन को ऊर्जा में बदलने में मदद करता है और इसी की कमी से सुनने में कमी, दौरे, प्रतिरक्षा प्रणाली की कमज़ोरी और यहाँ तक कि मृत्यु भी हो सकती है। इस कमी से पीड़ित शिशुओं को सुरक्षित उपायों के रूप में अतिरिक्त बायोटिन दिया जा सकता है।

  • जन्मजात अधिवृक्क हाइपरप्लासिया (सी..एच ): इस विकार से जननांग के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है और गुर्दे से लवण का क्षय होने के कारण मृत्यु हो सकती है। इस स्थिति का उपचार अनुपस्थित हॉर्मोन के पूरक देना है।

  • मेपल सिरप मूत्र रोग (एम.एस.यू.डी ): शरीर में अमीनो एसिड का स्तर बढ़ने के कारण, इस बीमारी में पेशाब से जली हुई चीनी की या मेपल सिरप जैसी गंध आती है। यदि इसका जल्दी इलाज नहीं किया जाता है, तो इससे शिशु में बौद्धिक और शारीरिक विकलांगता हो सकती है या मृत्यु भी हो सकती है।

  • सिस्टिक फाइब्रोसिस (सी.एफ.): सिस्टिक फाइब्रोसिस, बच्चों में फेफड़ों के रोगों के लिए कारक बन सकता है क्योंकि यह एक आनुवंशिक विकार है जिसका फेफड़ों और पाचन तंत्र पर प्रभाव पड़ता है। इस स्थिति के लिए कोई इलाज नहीं है और इसका उपचार एंटीबायोटिक दवाओं और पोषण आहार के माध्यम से फेफड़ों की किसी भी गंभीर बीमारी की रोकथाम करना है।

सिस्टिक फाइब्रोसिस

  • गंभीर संयुक्त प्रतिरक्षात्मक कमी (एस.सी.आई.डी): बीऔर टीलिम्फोसाइट की कमी, जो एक प्रकार की विशेष सफेद रक्त कोशिकाएं है और संक्रमण से लड़ने में शरीर की मदद करते हैं साथ ही गंभीर प्रतिरक्षा प्रणाली विकार का कारण बनतें हैं। एक कमज़ोर प्रतिरक्षा प्रणाली शरीर के लिए वायरस, बैक्टीरिया या कवक से होने वाले किसी भी संक्रमण से लड़ना मुश्किल बना देती है, जिससे शिशु रोगों और संक्रमण से आसानी से प्रभावित हो जाता है। एस.सी.आई.डी. को शुरू में ही पता लगा लेने से प्रतिरक्षा प्रणाली को मज़बूत करने में मदद मिल सकती है।

  • टोक्सोप्लाज़मोसिज़: टोक्सोप्लाज़मोसिज़, एक संक्रमण है जो टोक्सोप्लाज़्मा गोंडील के कारण होता है। यह एक छोटा परजीवी है जो मानव और पशु कोशिकाओं में रह सकता है और मुख्य रूप से बिल्लियों और खेत के जानवरों में पाया जाता है। इस संक्रमण की वजह से शिशु को गंभीर समस्याएं जैसे दौरे, आँखों की समस्याएं, बौद्धिक विकलांगता या मस्तिष्क क्षति हो सकती हैं।

  • गैलेक्टोसिमिया: यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें ग्लैक्टोज़ को ग्लूकोज़ में बदलने वाला एन्ज़ाइम शिशु में अनुपस्थित होता है। ऐसी स्थिति में दूध के बने सभी उत्पादों को बच्चे के आहार में सम्मिलित नहीं करने चाहिए ।

  • जन्मजात हाइपोथायरायडिज्म: इस स्थिति के परिणामस्वरूप शिशुओं में पर्याप्त थायराइड हॉर्मोन नहीं होता है, जिससे मस्तिष्क और शिशु का विकास धीमा हो जाता है। यदि स्थिति का जल्द पता चल जाए तो बच्चे का थायराइड हॉर्मोन की मौखिक खुराक से उपचार किया जा सकता है।

  • सुनने की क्षमता का स्क्रीनिंग: शिशु के जन्म के 3 सप्ताह के भीतर नवजात में सुनने की क्षमता का स्क्रीनिंग परीक्षण करवाना ज़रूरी है। शिशु अपने जीवन में जल्दी बोलने और भाषा को समझने का कौशल विकसित करते हैं और श्रवण (सुनना) की भूमिका इन कौशलों के विकास को सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण है। श्रवण हानि का शीघ्र पता लगाने और उसके उपचार से शिशु को सामान्य बौद्धिक विकास करने में मदद मिल सकती है।

सुनने की क्षमता का स्क्रीनिंग

नवजात शिशु के स्क्रीनिंग परीक्षण द्वारा शिशु में पहचाने जाने वाले अधिकांश रोगों को ठीक किया जा सकता है यदि प्रमाणित पेशेवरों द्वारा समय पर कार्रवाई की जाए।

नवजात की स्क्रीनिंग कब होती है?

शिशु के जन्म के तुरंत बाद शिशु की चयापचय संबंधी जाँच की जाती है, रक्त परीक्षण करने का सही समय जन्म के 24 से 48 घंटे के बीच का होता है क्योंकि रक्त के नमूने को 24 घंटे से पहले लिए जाने पर कई स्थितियाँ पता नही चल पाती हैं और यदि 48 घंटे के बाद परीक्षण किया जाता है तो सुधारात्मक कार्रवाई करने में बहुत देर हो सकती है। सटीक परिणाम सुनिश्चित करने के लिए शिशु को दो सप्ताह की उम्र में दूसरे स्क्रीनिंग परीक्षण की आवश्यकता हो सकती है।

सभी नवजात शिशुओं के स्क्रीनिंग परीक्षणों की सूची

एक नवजात शिशु को परीक्षण की निम्न श्रेणी के तहत 50 से अधिक चिकित्सा स्थितियों के लिए जाँचा जाता है:

  • हीमोग्लोबिनोपैथी: हीमोग्लोबिन से संबंधित समस्याओं की पहचान करने के लिए परीक्षण जिसमें सिकल सेल रोग, थैलेसेमिया आदि जैसे विकार शामिल हैं।

  • अंतःस्रावी विकार: उन स्थितियों के लिए स्क्रीनिंग जो हाइपोथायरायडिज्म जैसे हॉर्मोनल असंतुलन का कारण बनती हैं।

  • कार्बोहाइड्रेट विकार: लैक्टोज़ असहिष्णुता जैसी स्थितियों के लिए टेस्ट जो कार्बोहाइड्रेट चयापचय को प्रभावित करते हैं।

  • संक्रामक रोग: संक्रमण पैदा करने वाले वायरस और अन्य एंटीबॉडी की उपस्थिति के लिए परीक्षण।

विभिन्न प्रकार की जाँचों में शामिल हैं:

  • रक्त परीक्षण: इस जाँच को हील स्टिक जाँच भी कहा जाता है क्योंकि इसमें शिशु की एड़ी से रक्त का नमूना लिया जाता है। रक्त का नमूना एकत्र करके, एक फ़िल्टर कार्ड पर रखा जाता है जो ब्लड स्पॉट तैयार करता है और फिर उसे परीक्षण के लिए भेज दिया जाता हैं।
  • श्रवण जाँच परीक्षण: आमतौर पर शिशु के लिए श्रवण परीक्षण के दो अलगअलग सेट होते हैं। यह परीक्षण करने में लगभग पाँच से दस मिनट लगते हैं और शिशु के लिए सुरक्षित होते हैं।
    • ओटाएकॉस्टिक इमिशन टेस्ट (..टी ): इस टेस्ट के साथ, डॉक्टर यह निर्धारित करने की कोशिश करते हैं कि शिशु के कान, ध्वनि के लिए सामान्य रूप से प्रतिक्रिया करते हैं या नहीं।
    • श्रवण मस्तिष्क स्टेम रिस्पॉन्स (.बी.आर.): इस परीक्षण का उद्देश्य उन नसों का मूल्यांकन करना है जो ध्वनि को मस्तिष्क तक ले जाती हैं और मस्तिष्क इस ध्वनि पर प्रतिक्रिया कैसे देता है। यह परीक्षण लघु ईयरफोन कान में डालने और ध्वनि बजाने के द्वारा किया जाता है।
  • पल्स ऑक्सीमेट्री परीक्षण: इस परीक्षण का उद्देश्य शिशु के रक्त में ऑक्सीज़न के स्तर को मापना है जो उन शिशुओं की पहचान करने में मदद कर सकता है जिन्हे गंभीर जन्मजात हृदय रोग (सी.सी.एच.डी ) है। पल्स ऑक्सीमीटर के रूप में प्रसिद्ध मशीन का उपयोग करके शिशु के 24 घंटे पूरे करने के बाद इसका परीक्षण किया जाता है।

शिशु की स्क्रीनिंग प्रक्रिया कैसे होती है?

नवजात शिशुओं के लिए चयापचय स्क्रीनिंग परीक्षण की प्रक्रिया सरल है और ज़्यादा समय लेने वाली नहीं है। शिशु के जन्म से 2 दिनों के भीतर अधिकांश परीक्षण किए जाते हैं, रक्त परीक्षण एकमात्र दर्दनाक परीक्षण है क्योंकि इसमें शिशु की एड़ी से सुई लगाकर रक्त निकाला जाता है। जब शिशु पर परीक्षण प्रक्रियाएं की जा रही हों तो मातापिता उपस्थित रह सकते हैं।

ऐसे मामलों में, जहाँ बच्चे के जन्म के 24 घंटे के भीतर जाँच की जाती है वहाँ 1 या 2 सप्ताह के भीतर दोबारा परीक्षण करवाने की सलाह भी दी जाती है।

शिशु की स्क्रीनिंग प्रक्रिया कैसे होती है

आपको स्क्रीनिंग के लिए शिशु को कैसे तैयार करना चाहिए?

नवजात शिशु की स्क्रीनिंग प्रक्रियाएं सरल हैं और मातापिता या शिशु की ओर से किसी विशेष तैयारी की आवश्यकता नहीं है। ज़्यादातर स्क्रीनिंग परीक्षण माँ और शिशु को छुट्टी देने से पहले और डॉक्टरों की पूरी निगरानी में होते हैं ।

प्रक्रिया से पहले या उसके बाद शिशु को दूध पिलाने की सलाह दी जाती है और यह सुनिश्चित किया जाता है कि प्रक्रिया को पूरा करने के दौरान शिशु आराम से हो।

रक्त परीक्षण के समय, मातापिता शिशु को पकड़कर आराम दे सकते हैं क्योंकि जब रक्त का नमूना शिशु की एड़ी से निकाला जाता है तब यह दर्दनाक होता है । अन्य परीक्षणों के लिए, शिशु को सुला देना सबसे अच्छा है ताकि आवश्यक उपकरण आसानी से शिशु को लगाए जा सकें।

क्या नवजात शिशु का स्क्रीनिंग परीक्षण आपके शिशु को चोट पहुँचाता है?

जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, एकमात्र परीक्षण जिससे आपके शिशु को दर्द होगा वह रक्त परीक्षण है। शिशु की एड़ी में एक छोटी सूई चुभाकर रक्त का नमूना निकाला जाता है, जिससे शिशु को थोड़ी परेशानी हो सकती है। चुभन जल्दी ठीक हो जाती है और शिशु पर कोई निशान नहीं रहता है।

अस्पताल में शिशु को संभालने और अधिकतम आराम देने के लिए प्रशिक्षित पेशेवर हैं। परीक्षण किए जाने के दौरान मातापिता अपने शिशु को संभालने का विकल्प भी चुन सकते हैं।

क्या आनुवंशिक विकार की स्क्रीनिंग की जा रही है?

स्क्रीनिंग प्रक्रिया में आनुवंशिक और माँ में मिली बीमारियों, जैसे सिस्टिक फाइब्रोसिस, फेनिलकेटोनुरिया, सिकल सेल रोग आदि की पहचान के लिए परीक्षण भी किए जाते हैं । इन आनुवंशिक विकारों का जल्द पता लगाने से डॉक्टर शिशु पर इसके प्रभाव को सीमित करने के लिए एहतियाती उपाय कर सकते हैं ।

जाँच रिपोर्ट

आमतौर पर शिशु की स्क्रीनिंग जाँचरिपोर्ट, जाँच से 2 – 3 सप्ताह के भीतर डॉक्टर को भेज दी जाती है। स्क्रीनिंग प्रक्रिया के सामान्य परीक्षा परिणाम निम्नलिखित हैं:

  • स्क्रीनिंग टेस्ट नकारात्मक

एक नकारात्मक या इनरेंजपरिणाम का मतलब है कि परीक्षण किए गए सभी पैरामीटर सामान्य सीमा में हैं और शिशु को कोई खतरा नहीं है। आमतौर पर ऐसी स्थितियों में दोबारा जाँच की आवश्यकता नहीं होती है।

  • स्क्रीनिंग टेस्ट सकारात्मक

एक सकारात्मक या आउटऑफरेंजरिपोर्ट दर्शाती है कि कम से कम एक जाँच मापदंड सामान्य सीमा के भीतर नहीं है या असफल है। सकारात्मक रिपोर्ट के आने पर मातापिता को सूचित किया जाता है, इसका का मतलब यह नहीं है कि शिशु किसी बीमारी से पीड़ित है, यह एक संकेत है और इसमें समस्या का निदान करने के लिए आगे के परीक्षण की आवश्यकता होती है। एक बार समस्या की जड़ सिद्ध हो जाने पर, डॉक्टर आवश्यक सुधारात्मक उपाय सुझा सकते हैं।

यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि परीक्षण हमेशा सटीक नहीं हो सकते हैं और उसमें हमेशा त्रुटि की गुंजाइश होती ही है। कभीकभी ऐसे स्थिति भी हो सकती है जब जाँच परिणाम सीमा रेखा के काफी नज़दीक होते हैं, सी स्थिति में पुनः जाँच की आवश्यकता हो सकती है।

क्या होगा अगर शिशु के साथ कुछ समस्याएं हैं?

यदि जाँच सकारात्मक है, तो डॉक्टर समस्या के निदान के लिए आगे की जाँच प्रक्रियाओं का सुझाव दे सकते हैं। एक बार रोग /संक्रमण की पहचान हो जाने के बाद, डॉक्टर ज़रूरी उपचार या आहार योजना की सलाह देते हैं जिससे शिशु को उस बीमारी से उबरने में मदद मिलेगी।

शिशु की स्क्रीनिंग और होमबर्थ

शिशु का जन्म कहीं भी हुआ हो, स्क्रीनिंग करवाना बहुत ज़रूरी है। यदि आप शिशु को घर पर जन्म देने की योजना बनाते हैं या यदि आपका शिशु घर पर पैदा हुआ है, तो आपको अपने डॉक्टर / अस्पताल में अपॉइंटमेंट बुक करना चाहिए जहाँ यह सेवा उपलब्ध है। परीक्षण के समय अनुसार, विशेषरूप से रक्त परीक्षण अत्यधिक नाज़ुक होता है इसलिए इसका समय महत्वपूर्ण होने के कारण, अपेक्षित डिलीवरी की तारीख के आधार पर, पहले ही मिलने के लिए समय ले लेना अनिवार्य है।

कई अस्पतालों में परीक्षण करने के लिए आवश्यक उपकरण उपलब्ध नहीं होते हैं इसलिए पहले से ही अस्पताल में एक स्लॉट खोजकर बुक करना महत्वपूर्ण है।

क्या होगा अगर आपका बच्चा स्क्रीनिंग से नहीं गुजरता है?

यदि शिशु जन्म के तुरंत बाद स्क्रीनिंग प्रक्रियाओं से नहीं गुज़रता है, तो गंभीर बीमारी या प्रतिकूल चिकित्सा स्थिति की जानकारी न होने की आशंका अधिक होती है। कुछ चिकित्सीय स्थितियाँ जीवन के लिए खतरा हो सकती हैं और इसके परिणामस्वरूप असामान्य वृद्धि या कुछ मामलों में शिशु की समय से पूर्व मृत्यु भी हो सकती है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न

1. क्या पी.के.यू. जाँच नवजात शिशु की स्क्रीनिंग के समान है?

हाँ, यह परीक्षण समान हैं और कुछ डॉक्टर इन शब्दों का विनिमेयता के अनुसार उपयोग कर सकते हैं।

2. क्या मातापिता द्वारा स्क्रीनिंग के लिए पूछा जाता है?

अधिकांश अस्पताल विशेष रूप से इसके लिए पूछे बिना ही स्क्रीनिंग परीक्षण करते हैं । हालांकि, मातापिता यह सुनिश्चित करने के लिए कह सकते हैं कि प्रक्रिया को समय पर पूरा किया जा रहा है।

3. क्या जन्म के समय शिशु की जाँच करवाना अनिवार्य है?

भारत में, जन्म के समय शिशु की जाँच करवाना अनिवार्य नहीं है। हालांकि, यह सलाह दी जाती है कि यदि यह अनिवार्य न भी हो तो भी प्रक्रिया करवा ली जाए।

नवजात शिशु के स्क्रीनिंग से शिशु को सामना करना पड़े, ऐसी किसी भी स्वास्थ्य समस्याओं का पता लगाया जा सकता है और यदि आवश्यक हो तो तत्काल सहायता भी प्रदान की जा सकती है। शुरुआती हस्तक्षेप से शिशु में कई प्रकार की समस्याओं को खत्म करने में मदद मिलती है और सभी शिशुओं के लिए यह सलाह दी जाती है।