गर्भवती होने के दौरान सामने आने वाली स्वास्थ्य समस्याएं, जो कि मां, बच्चे या फिर दोनों के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकती हैं, उन्हें जटिलताएं कहा जाता है। इन जटिलताओं का अनुभव ऐसी महिलाएं भी कर सकती हैं, जो कि पहले स्वस्थ रही हैं और जिन महिलाओं को पहले भी समस्याएं थीं, उन्हें इनका अनुभव दोबारा होने की संभावना अधिक होती है। जटिलताएं गर्भावस्था को एक हाई रिस्क प्रेगनेंसी बना सकती हैं, जिसमें लगातार देखभाल और निगरानी की जरूरत होती है। हालांकि ज्यादातर गर्भावस्थाएं आसान होती हैं, फिर भी मां बनने वाली महिलाओं को प्रभावित करने वाली आम जटिलताओं की जानकारी होना मददगार साबित हो सकता है।
यहां पर प्रेगनेंसी कॉम्प्लिकेशंस की एक लिस्ट दी गई है, जिसमें प्रेगनेंसी के दौरान आने वाली आम जटिलताओं पर बात की गई है, जिनकी जानकारी मां बनने वाली हर महिला को होनी चाहिए।
गर्भधारण के बाद, शुरुआती 20 सप्ताह के अंदर बच्चा गिर जाने को मिसकैरेज कहा जाता है और इसे मेडिकल सर्कल में स्पॉन्टेनियस अबॉर्शन के नाम से भी जाना जाता है। 80% से भी ज्यादा मिसकैरेज 12 सप्ताह के अंदर होते हैं। वेजाइनल स्पॉटिंग या ब्लीडिंग इसकी पहचान होती है, जिसके साथ पेट में दर्द और क्रैम्प भी हो सकते हैं। इन लक्षणों के देखने पर आपको तुरंत अपने डॉक्टर से संपर्क करना चाहिए, ताकि वे मिसकैरेज का पता लगाने के लिए अल्ट्रासाउंड स्कैन या ब्लड टेस्ट जैसे कुछ टेस्ट कर सकें।
मिसकैरेज की पहली तिमाही में होने वाली सबसे आम जटिलताओं में से एक है और इनमें से लगभग 50 से 70% घटनाओं में फर्टिलाइज्ड अंडो में क्रोमोसोमल असामान्यताओं को इसका कारण माना जाता है, जैसे कि अंडे या स्पर्म में क्रोमोसोम की गलत संख्या। कभी-कभी शुरुआती विकास की नाजुक प्रक्रिया के दौरान आने वाली समस्याएं भी मिसकैरेज का कारण बन सकती हैं, जैसे कि एम्ब्र्यो में शारीरिक खराबी होना या एक अंडा जो कि सही तरह से इंप्लांट ना हुआ हो। उम्र, लंबी बीमारी, गर्भाशय या सर्विक्स से संबंधित समस्याएं, जन्म दोष का इतिहास या शराब, सिगरेट, ड्रग्स जैसी खराब आदतों से युक्त लाइफस्टाइल जैसे कुछ कारक मिसकैरेज के खतरे को बढ़ाने के लिए जाने जाते हैं।
जब गर्भावस्था के 37 सप्ताह से पहले महिला को रेगुलर कॉन्ट्रैक्शन होने शुरू हो जाते हैं, जिसके कारण सर्विक्स पतला होने लगता है, तब इसे प्रीमैच्योर या प्रीटर्म लेबर कहा जाता है। जब 37 सप्ताह से पहले बच्चे का जन्म हो जाता है, तब इसे प्रीटर्म बर्थ कहा जाता है और इसे प्रीमैच्योर माना जाता है। लेकिन प्रीटर्म लेबर में जाने का यह मतलब नहीं होता है, कि बच्चा प्रीमैच्योर ही होगा। प्रीटर्म लेबर का अनुभव करने वाली महिलाओं में से लगभग आधी महिलाओं की डिलीवरी 37 सप्ताह या उसके बाद होती है। लगभग एक तिहाई प्रीटर्म बर्थ प्लान किए गए होते हैं। यदि मां या बच्चे के साथ किसी तरह की समस्या हो और वे स्वस्थ ना हों, जैसा कि गंभीर प्री-एक्लेमप्सिया में होता है या अगर बच्चे का विकास रुक गया हो, तो ऐसे में इस तरह के निर्णय लिए जाते हैं। मेडिकल टीम ऐसे में जल्द लेबर को इंड्यूस करती है या 37 सप्ताह से पहले सी-सेक्शन के द्वारा डिलीवरी करती है।
प्रीटर्म बर्थ के निम्नलिखित लक्षण होते हैं:
प्री-एक्लेमप्सिया प्रेगनेंसी की सबसे हाई रिस्क जटिलताओं में से एक है, जो कि ज्यादातर तीसरी तिमाही के दौरान देखी जाती है, लेकिन गर्भावस्था का आधा समय बीतने के बाद या फिर डिलीवरी के बाद 6 सप्ताह तक कभी भी शुरू हो सकती है। प्री-एक्लेमप्सिया में हाई ब्लड प्रेशर के कारण ब्लड वेसेल्स सिकुड़ जाते हैं और शरीर में किडनी, लिवर और मस्तिष्क जैसे जरूरी अंगों को नुकसान पहुंचाते हैं। कुछ मामलों में इस स्थिति के कोई लक्षण नहीं दिखते हैं, लेकिन यह जानलेवा भी हो सकता है। प्री-एक्लेमप्सिया के कारण जब गर्भाशय तक जाने वाला ब्लड फ्लो बाधित हो जाता है, तब एमनियोटिक फ्लूइड का कम होना, धीमा विकास और प्लेसेंटल अब्रप्शन जैसी समस्याएं हो सकती हैं। इस स्थिति के कारण छोटे ब्लड वेसल शरीर के टिशू में फ्लुइड लीक कर सकते हैं, जिससे सूजन हो सकती है और जब छोटे ब्लड वेसल किडनी में लीक होते हैं, तब खून में से कुछ प्रोटीन पेशाब में चला जाता है।
प्री-एक्लेमप्सिया के लक्षण इस प्रकार हैं:
हालांकि यह जरूरी नहीं है, कि बढ़ते वजन या सूजन से ग्रस्त हर महिला प्री-एक्लेमप्सिया से जूझ रही हो। अगर आप अन्य संकेतों के साथ गंभीर सिरदर्द, नजर में बदलाव, मतली या उल्टी जैसे लक्षण देखते हैं, तो तुरंत अपने डॉक्टर से संपर्क करें। अगर प्री-एक्लेमप्सिया नियंत्रित नहीं होता है, तो इसके कारण इक्लैंपशिया हो सकता है, जिसके कारण माँ में कन्वल्जन दिख सकती है।
एमनियोटिक सैक में एमनियोटिक फ्लूइड भरा होता है, जो कि बढ़ते बच्चे को सुरक्षा और सहयोग देता है। इसका काम होता है, बच्चे को झटकों से बचाने के लिए कुशन तैयार करना, गर्भ में लगातार तापमान को नियंत्रित रखना, इंफेक्शन से बचाना और अंबिलिकल कॉर्ड के कंप्रेशन से बचाना, जो कि बच्चे तक पहुंचने वाले ऑक्सीजन सप्लाई को कम कर सकता है। आमतौर पर तीसरी तिमाही की शुरुआत तक एमनियोटिक फ्लुइड की मात्रा बढ़ती रहती है और 34 से 36 सप्ताह के बाद यह धीरे-धीरे कम होती है। जब एमनियोटिक फ्लुइड बहुत ही कम मात्रा में शेष रह जाता है, तब इस स्थिति को ओलिगोहाइड्रेमनियोस कहा जाता है। एमनियोटिक फ्लूइड इंडेक्स की जांच के लिए एक अल्ट्रासाउंड स्कैन किया जाता है। तीसरी तिमाही में इसका सामान्य माप 5 से 25 सेंटीमीटर के बीच होना चाहिए। 5 सेंटीमीटर से कम हो, तो इसे लो माना जाता है। हालांकि प्रैक्टिकली 8 सेंटीमीटर इसकी सबसे निचली सीमा होती है। पहली या दूसरी तिमाही में एमनीओटिक फ्लूइड की मात्रा कम होने से गर्भस्थ शिशु में समस्याएं हो सकती हैं। अगर महिला का गर्भकाल पूरा होने पर हो, उसके शरीर में एमनियोटिक फ्लूइड की मात्रा कम हो, बच्चे का विकास रुक गया हो और मां को प्री-एक्लेमप्सिया हो, तो ऐसे में लेबर उत्पन्न किया जाता है।
जब एक निषेचित अंडा गर्भाशय के बाहर इंप्लांट हो जाता है, तब इसे एक्टोपिक प्रेगनेंसी कहा जाता है। यह स्थिति बहुत खतरनाक होती है और तुरंत इसके इलाज की जरूरत होती है। 100 में से 2 गर्भावस्थाएं एक्टोपिक होती हैं और चूंकि एक्टोपिक प्रेगनेंसी को गर्भाशय में ट्रांसप्लांट करने का कोई तरीका नहीं होता है, ऐसे में इसे खत्म किया जाना जरूरी है। यह तब होता है, जब गर्भधारण के बाद फर्टिलाइज्ड अंडा गर्भाशय में जाने के दौरान फैलोपियन ट्यूब में चला जाता है। अगर ट्यूब अंडे को गर्भाशय में भेजने में अक्षम रहता है या वह ब्लॉक्ड या क्षतिग्रस्त रहता है, तो अंडा वहीं इंप्लांट हो जाता है और बढ़ना शुरू कर देता है। चूंकि ज्यादातर एक्टोपिक गर्भवस्थाएं फेलोपियन ट्यूब में होती हैं, इसलिए इसे अक्सर ट्यूबल प्रेगनेंसी भी कहा जाता है। अगर एक्टोपिक प्रेगनेंसी की पहचान ना हो, तो इससे फैलोपियन ट्यूब फट सकती है, जिससे गंभीर अंदरूनी ब्लीडिंग हो सकती है और ट्यूब के फटने के कारण पेट में दर्द हो सकता है और अगर बहुत अधिक ब्लीडिंग हो रही हो, तो यह जानलेवा भी हो सकता है।
यह गर्भावस्था के दौरान होने वाली सबसे आम समस्याओं में से एक है। जिस महिला को प्रेगनेंसी से पहले डायबिटीज न हो,और गर्भवती होने के दौरान डायबिटीज हो जाए, तो उसे जेस्टेशनल डायबिटीज कहा जाता है। जेस्टेशनल डायबिटीज के कारण ब्लड शुगर का स्तर बहुत ऊंचा हो जाता है और यह बच्चे के लिए बहुत गंभीर समस्या होती है। अन्य प्रकारों के विपरीत जेस्टेशनल डायबिटीज स्थाई नहीं होता है और बच्चे के जन्म के बाद ब्लड शुगर का स्तर वापस सामान्य हो जाता है। हालांकि इसके कारण महिला को आगे चलकर टाइप टू डायबिटीज होने का 25 से 50% खतरा होता है। जेस्टेशनल डायबिटीज के लिए डाइट प्लान एक विकल्प हो सकता है, जिस पर विचार किया जा सकता है।
प्लेसेंटा प्रीविया एक ऐसी स्थिति है, जिसमें प्लेसेंटा असामान्य रूप से गर्भाशय में नीचे की ओर, सर्विक्स के करीब या सर्विक्स को ढकता हुआ स्थित होता है। सामान्य स्थितियों में प्लेसेंटा गर्भाशय के ऊपरी हिस्से के पास स्थित होता है और अंबिलिकल कॉर्ड के द्वारा बच्चे तक पोषक तत्व सप्लाई करता है। हालांकि गर्भावस्था की शुरुआत में यह एक समस्या नहीं होती है, लेकिन अगर प्रेगनेंसी आगे बढ़ने पर भी यह खतरनाक रूप से नीचे की ओर स्थित रहे, तो इससे ब्लीडिंग या अन्य जटिलताएं पैदा हो सकती हैं। प्रेगनेंसी के दौरान अल्ट्रासाउंड स्कैन करने से इस स्थिति की जानकारी मिल सकती है और यह आमतौर पर कुछ महिलाओं में अपने आप ठीक हो जाता है। यह स्थिति 200 डिलीवरी में से एक में देखी जाती है और चूंकि प्लेसेंटा सर्विक्स के पास होता है, ऐसे में बच्चे की डिलीवरी सी-सेक्शन द्वारा की जाती है।
बच्चा मां के शरीर से आने वाली ज्यादातर बीमारियों के प्रति अच्छी तरह से सुरक्षित होता है, जैसे कि सर्दी-जुकाम या पेट की खराबी। लेकिन कुछ बीमारियां मां और बच्चे दोनों को ही नुकसान पहुंचा सकती हैं, जिसके कारण बच्चे में जन्म दोष दिख सकते हैं। इनमें से कुछ इस प्रकार हैं:
हालांकि जटिलताएं चिंता का कारण होती है, पर इनके कारण निराश नहीं होना चाहिए। जटिल गर्भावस्था को अगर पूरी देखभाल मिले और नियमित रूप से मॉनिटर किया जाए, तो मां और बच्चे दोनों ही स्वस्थ हो सकते हैं।
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